प्रतिदिन:
बने रहिये ‘साहिब’, ‘मुसाहिबी’ तकलीफ देती है
राजनीति का स्वभाव है, वो अपने ‘यस मेन’ पालती है, जब तक नेताजी के सितारे बुलंदी पर होते हैं ‘साहिब ‘ पहलवान होते है | इसी पहलवानी में पीठ सील लगा जाती है | यह सील ‘ब्लू आईड बॉय’‘ ‘नाक के बाल’ ‘किचन केबिनेट के सदस्य’ जैसे सर्वनाम की होती है | सील इतनी चमकदार होती है की जनता तो जनता साथी अफसर उस तरफ देखने से पहले काला चश्मा लगा लेते है | यह काल स्वर्णिम होता है, समृद्धि दरवाजे पर लौट लगाने लगती है और काम के बोझ से दबे ‘साहिब’ की प्रशंसा करती ‘मेम साहिब’ रोज उनकी नजर इस लिए उतारती हैं कि पडौस के बंगले में रहने वाले ‘साहिब’ से सत्ता नाराज़ है और लूप लाइन में होने से वे ‘सुविधा क्रंच’ से ग्रस्त हैं | उनकी बुरी नजर ‘साहिब’ ही रहती है | ये भोपाल की चार इमली और ७४ बंगले का आम किस्सा है | इस बार चर्चा में ज्यादा इसलिए है की १५ साल की ‘मुसाहिबी’ के बाद फिर से कुछ लोग पुन: ‘साहिब’ बना दिए गये है और कुछ लोगों बनाये जा रहे हैं |
१९८० के पहले यह बीमारी राज्य प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों में थी |१९८० के वर्ष में भारतीय प्रशासनिक सेवा और भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों में फ़ैल गई | पूरे सचिवालय और भोपाल में यत्र- तत्र पीठ पर सील लगवा कर ‘साहिब’ ‘मुसाहिब’ हो गये |जिस दफ्तर में जाएँ ‘साहिब’ नहीं ‘मुसाहिब’ मिलते थे | एक बड़े ओहदे के ‘मुसाहिब’ तो नेता जी के फोन को साक्षात दर्शन मानकर खड़े होकर बात करते थे | उनके साथ के ‘साहिब’ जिन्होंने यह किस्सा आम किया था १९८५ में ‘साहिब’ से ‘मुसाहिब’ हो गये | नेताजी के सितारों ने फिर जोर मारा ‘मुसाहिबी’ बदल गई | एक ‘साहिब’ और एक ‘मुसाहिब’ |
१९९० में एक ऐसा दौर भी आया कि ‘मुसाहिबी’ के लिए सुबह व्यायाम के लिए एकत्रीकरण की शर्त अनिवार्य हो गई | ‘साहिबों’ का टोटा पड़ गया और सबसे निचली पंक्ति का उद्धार हो गया | निचली पंक्ति से उठा आदमी नेता जी का ‘मुसाहिब’ हो गया ‘सवाया’ था | सारे ‘साहिब’ ‘सवाये’ के आगे पानी भरने लगे | भला हो राष्ट्रपति शासन का उसने ‘साहिब’ से ‘मुसाहिब’ बनने की कला को कुछ दिन विराम दे दिया | १९९२ से २००३ तक यह परम्परा फूली और २००३ के बाद तो फलदायी हो गई | कई ऐसे ‘साहिब’ जिन्होंने सालों से सूर्योदय नहीं देखा था, सुबह अरेरा कालोनी के ई- २ घूमने जाने लगे | सिर्फ ‘गुरुवार’ को ही नहीं, हर दिन को गुरुवार मानकर |
अब सत्ता का चरित्र “बदलाव” का है, फेहरिस्त बन रही हैं, बिगड़ रही है | ‘साहिब’ ‘मुसाहिब’ और ‘मुसाहिब’ ‘साहिब’ हो रहे है | कुछ को अच्छा लग रहा है,कुछ को बुरा | मानव स्वभाव है, लेकिन यह सत्य है ‘साहिबी’ हमेशा रहती है और ‘मुसाहिबी’ जब जाती है तो बहुत दुःख देती है |