प्रतिदिन:
देश : अब क्षेत्रीय दलों के साथ बिना गुजारा नहीं
एक्जिट पोल सही है या गलत इसका फैसला कल आने वाले चुनाव परिणाम करेंगे | देश की नई सरकार किस गठजोड़ की बनेगी यह सवाल पूछा जाना आज लाजिमी है |सम्भावना भाजपानीत एन डी ए की अधिक है, राजनीति कई बार सम्भावना के विपरीत भी चलती है | परिणाम अपेक्षित हैं | एक बात जो आज कही जा सकती है वो यह है कि सरकार चाहे जिस सियासी गठजोड़ की बने, नई सरकार की अवधि पूरी होने तक २१ वीं सदी का चौथाई काल पूरा हो चुका होगा। नई सरकार के सामने देश को चलाने के लिए नई चुनौतियाँ होगी | ये चुनैतियां बहुत तेजी से उभरेंगी | आज देश जिस भी परिणाम को देखेगा, उसमें उभरते क्षेत्रीय दल और उनका वर्चस्व साफ दिख रहा है |
चुनाव २०१९ में भाजपा-विरोधी एवं कांग्रेस-विरोधी रुझान में तेजी देखने को मिला है| भाजपा से ज्यादा प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर वोट दिए जाने की चर्चा है | कांग्रेस में राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी की जोड़ी को ऐसा प्रतिसाद नहीं मिला है | कांग्रेस के परम्परागत वोट कांग्रेस के नाम पर ही डले हैं | क्षेत्रीय दलों का उभार भाजपा और कांग्रेस जैसे दलों के लिए चुनौती है | अभी ये साथ जरुर आ रहे है पर कभी भी ये किसी के लिए भी चुनौती बन सकते हैं | अगर ऐसा है तो भाजपा और कांग्रेस को एक साथ आने की जरूरत पड़ सकती है। अगले दशक में यह सबसे बड़ी राजनीतिक घटना हो सकती है। इस संभावना को आकार देने के लिए जरूरी होगा कि भाजपा हिंदुत्व से पीछे हटे और कांग्रेस गांधी परिवार के नेतृत्व को अलविदा कहे| इसकी सम्भावना अभी कम है, पर आने वाले समय की एक सम्भावना तो है ही |
इस चुनाव में भाजपा ने लोकसभा की कुल ५४३ सीटों में ४३७ पर ही चुनाव लड़ा है, जबकि कांग्रेस ने ४२३ सीटों पर ही अपने उम्मीदवार खड़े किये हैं। इसका साफ मतलब है कि ये दोनों राष्ट्रीय दल खुद ही मान रहे हैं कि करीब १२०-१२५ सीटों पर उनका राजनीतिक दखल नहीं है। सच तो यह है कि यह आंकड़ा करीब २२० सीटों का है। वर्ष २००४ के आम चुनाव में भाजपा और कांग्रेस दोनों दलों का जोड़ २८२ सीट था । २००९ में यह जोड़ ३२२ सीट था |२०१४ में यह आंकड़ा बढ़कर ३२६ हुआ और बाकी सीटें अन्य दलों के खाते में गई थीं। दोनों राष्ट्रीय दलों की सीटें कमोबेश इसी दायरे में रही हैं।
क्षेत्रीय दलों के उभरने के कई कारण हो सकते है | जिनमे प्रमुख राज्य की बाध्यकारी शक्तियों में खासी कटौती है |जिसका परिणाम यह हुआ है कि उत्पादन के सभी घटक या तो बहुत महंगे या अनुपलब्ध या दोनों हो चुके हैं। इन घटकों को सस्ता बनाने के लिए हमें इस पर चर्चा करने की जरूरत है कि क्या भारतीय संघ और राज्य को भी दुनिया के पश्चिमी गोलाद्र्ध की तरह अधिक बाध्यकारी बनाना होगा?संरचनात्मक, संवैधानिक एवं राजनीतिक विपक्ष को ध्यान में रखें तो एक संतुलन बनाए रखना जरूरी है , परन्तु यह बेहद मुश्किल काम है जो चुनौती बनता जा रहा है। इसे अंजाम देने का एक तरीका यह होगा कि संविधान से समवर्ती सूची को हटाकर राज्यों को अधिक स्वायत्तता दे दी जाए। इसके साथ केंद्रीय सूची से भी कई विषयों को राज्य सूची में लाना होगा। राज्यों को एक तय रकम केंद्र को देनी चाहिए और हर पांच साल पर उस राशि का संशोधन होना चाहिए। ऐसा करना आसान नहीं होगा लेकिन 21वीं सदी तो अभी शुरू ही हुई है। अगला दशक बेहद बुनियादी किस्म की इन समस्याओं के समाधान खोजेगा | यह नई सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती साबित होगा |
अभी तक के अनुभव हैं कि राज्य के ढांचे में सुधार करना सबसे कठिन काम है क्योंकि स्वतंत्रता के सिद्धांत का आशय है कि सुधार की सर्वाधिक जरूरत वाले संस्थान खुद ही अपना सुधार करें । संसद, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के बीच विवाद का यह बहुत पुराना बिंदु रहा है। स्वतंत्रता की इस आत्मघाती व्याख्या को दूर करने के लिए जरूरी है कि राज्य के बाकी दो अंग तीसरे अंग का सुधार करें। जरूरत हो तो संविधान में नये प्रावधान हों या १०० बार से अधिक संशोधित संविधान फिर लिखा जाये |