प्रतिदिन
कहाँ गया देश का श्रमबल ?
देश में लोकसभा चुनाव समाप्ति तक रोके गये रोजगार के आंकड़े अब सामने आये हैं | ये आंकड़े सबसे आधिकारिक स्रोत राष्ट्रीय सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) के हैं| रोजगार-बेरोजगार सर्वेक्षण के अधिकारिक आंकड़े यही माने जाते हैं। इन सर्वेक्षण में आवधिक श्रम बल, यानी पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस) नया नाम है| एनएसएसओ द्वारा पूर्व में जारी रोजगार-बेरोजगार सर्वे के आंकड़ों की तरह ही पीएलएफएस के अनुमान विश्वसनीय माने जाते हैं।
इस नई पद्धति पीएलएफएस में केवल कार्य बल, श्रम बल और बेरोजगारों का अनुमान लगाया जाता है। फिर इन अनुमानों का गुणा-गणित जनसंख्या अनुमानों के साथ किया जाता है, ताकि कामगारों की वास्तविक संख्या का पता चल सके। जनसंख्या का अनुमान आमतौर पर भारत के रजिस्ट्रार जनरल (आरजीआई) के कार्यालय से जारी होता है, जो देश में जनगणना भी कराता है। जैसा कि अधिकांश आधिकारिक आंकड़ों के साथ होता रहा है, यह पहली बार है कि आरजीआई कार्यालय ने 2011 के बाद के वर्षों के लिए जनसंख्या अनुमान जारी नहीं किए। वैसे, इसी तरह की गणना करने वाली अन्य निजी संस्थाओं ने यह अनुमान जारी किया है, जिसके मुताबिक, १ जनवरी, २०१८ को भारत की आबादी १.३१ अरब थी। इसमें ८५.८ करोड़ आबादी ग्रामीण थी, जबकि ४५.७ करोड़ शहरी। ये आंकडे़ संयोगवश केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) द्वारा २०१८ के राष्ट्रीय लेखा प्रकाशनों में दिए गए आंकड़ों से मेल खाते हैं।
ये आंकडे कई खुलासे करते हैं। पहला, अर्थव्यवस्था में कुल कामगारों की संख्या २०११-१२ में ४७.२५ करोड़ थी, जो २०१७-१८ में घटकर ४५.७ करोड़ रह गई। यानी इन छह वर्षों में १.५५ करोड़ कामगार कम हुए। एनएसएसओ जबसे रोजगार की हकीकत माप रहा है, तबसे यह पहली बार है कि कामगारों की कुल संख्या में गिरावट दर्ज की गई है। हालांकि इस नतीजे से हैरान होने की कोई वजह नहीं है, क्योंकि श्रम ब्यूरो के चौथे और पांचवें दौर के वार्षिक रोजगार सर्वेक्षण में भी यही अनुमान लगाया गया है कि कामगारों की संख्या में १.६ करोड़ की कमी आई है। इन अनुमानों से परेशान सरकार ने तुरंत श्रम ब्यूरो की रिपोर्ट को जारी न करने का फैसला किया। हालांकि, इन दोनों आधिकारिक सरकारी स्रोतों से कामगारों की संख्या में गिरावट की पुष्टि होती है, जो रोजगार संकट की ओर इशारा कर रही है।
कृषि में श्रमिकों की संख्या और हर क्षेत्र में महिला कामगारों की संख्या में तेज कमी इसका मुख्य कारण है। पिछले छह वर्षों में लगभग ३.७ करोड़ कामगारों ने कृषि-कार्य से तौबा की, जबकि इसी अवधि के दौरान कार्य बल से २.५ करोड़ महिला कामगार कम हुईं। हालांकि कृषि से श्रमिकों के बाहर होने की प्रवृत्ति २००४-०५ से देखी जा सकती है| यह रुझान इसकी ओर भी इशारा करता है कि कृषि उत्पादन में लगे लोगों में किस कदर असुरक्षा बढ़ रही है। पिछले छह वर्षों में कृषि पर संकट ने इस प्रक्रिया को तेज कर दिया है। ऐसे में, कहीं ज्यादा आश्चर्य की बात महिला कामगारों में गिरावट की प्रवृत्ति जान पड़ती है, जो समान प्रतिव्यक्ति आय वाले किसी विकासशील या विकसित देश में नहीं देखी गई है।
सवाल यह भी है कि कृषि क्षेत्र ये कामगार आखिर किस क्षेत्र में अपनी सेवा देंगे? आंकड़े बताते हैं कि इन छह वर्षों में २५ से ६४ आयु-वर्ग वाले लोगों की संख्या करीब ४.७ करोड़ बढ़ी है, जिसका अर्थ यह भी है कि २०१२ से २०१८ के दौरान अर्थव्यवस्था को कम से कम ८.३ करोड़ नौकरियां पैदा करनी चाहिए थी, ताकि श्रम बल में प्रवेश करने वाले नए लोग और कृषि से निकाले गए कामगारों को काम मिल पाता। मगर इसके उलट, अर्थव्यवस्था में कामगारों की संख्या १.५५ करोड़ कम ही हो गई।आंकड़ों पर सवाल उठाने वर्तमान या पूर्व की सरकारों को घेरने से उन लोगों की मुश्किलें दूर नहीं हो सकतीं,जो देश में खत्म हो चुके रोजगार की तलाश में हैं। ‘जॉबलेस ग्रोथ’ और स्थिर वेतन न सिर्फ एक कमजोर अर्थव्यवस्था की कहानी कह रहे हैं, बल्कि ग्रामीण भारत के संकट को भी बयां कर रहे हैं। सरकार को इस विषय पर गंभीरता से चिन्तन करना चाहिए |