प्रतिदिन
आभासी दुनिया में बढ़ते घटते पन्थ
देश का दक्षिण और वामपंथ का सारा दर्शन अब सोशल मीडिया पर टिप्पणियों में दिखने लगा है | बहस, ज्ञान और दर्शन का पुट लिए मशविरे आसानी से उपलब्ध हैं |अगर आप फेसबुक पर हैं या ट्विटर के संदेशों को गौर से देखते हैं या फिर आपके स्मार्टफोन पर वाट्सएप के संदेश आते-जाते रहते हैं, तो आप इन जगहों पर की जाने वाली पोस्ट या भेजे जा रहे संदेशों के राजनीतिक रुझान को देखें। आप पाएंगे कि इन दिनों वहां आपको उग्र किस्म के वाद और उनकी पक्षधरता दिख रही है और इसके सिमटने को कोई गुंजाइश न के बराबर है, क्योंकि कोई कोशिश नहीं कर रहा ।
हर धर्म के प्रचारक और कट्टर विरोधी भी यहाँ उपलब्ध हैं । जिहाद, गो-रक्षा के लिए मर-मिटने वाले भी और बच्चा चोरी की बातें फैलाने वाले भी सब हाजिर हैं । इसके विपरीत वहां आपको इन विषयों जैसे विज्ञान, अंध विश्वास निवारण, महिलाओं और मजदूरों के अधिकारों की बात सहित देश प्रेम पर चर्चा करने वाले बहुत कम दिखेंगे। कृषि संकट और किसान आत्महत्याओं की खबरें जब हर तरफ होंगी, तब भी सोशल मीडिया में इनकी चर्चा बहुत कम ही दिखेगी। किताबी भाषा में कहें, तो जिन्हें दक्षिणपंथी कहा जाता है, सोशल मीडिया पर उनकी सक्रियता सबसे ज्यादा दिखती है, जबकि वामपंथी कहलाने वाले लोग उस तरह से सक्रिय नहीं दिखते। माना जाता है कि कोई भी माध्यम आमतौर पर पंथनिरपेक्ष होता है, अगर यह सच है, तो फिर ऐसा क्या है कि एक तरह की राजनीतिक सोच सोशल मीडिया पर तेजी से फल-फूल रही है, जबकि दूसरी तरह की सोच उसकी आक्रामकता से अपना बचाव करती हुई ही दिख रही है।
भारत में तो किसी को इस विषय पर कुछ करने अर्थात शोध आदि की फुर्सत नहीं है| फ्रांस की समाजशास्त्री जेन शेरिडी ने पिछले दिनों इसका अध्ययन किया, तो काफी दिलचस्प नतीजे सामने आए। उन्होंने अपने शोध के लिए अमेरिका के नॉर्थ कैरोलिना को चुना। यह ऐसा राज्य है, जहां २००८ के चुनाव में बराक ओबामा बहुत मामूली अंतर से जीते थे और अगले चुनाव में तो इस राज्य में ठीक-ठाक अंतर से हार गए थे। शेरिडी ने पाया कि इन नतीजों में एक बड़ी भूमिका दक्षिणपंथी संगठनों की ऑनलाइन सक्रियता ने निभाई। इन संगठनों ने न सिर्फ ऑनलाइन माध्यम को गंभीरता से लिया, बल्कि बड़े पैमाने पर इसमें संसाधन भी खपाए। इतना ही नहीं, इसके लिए सांगठनिक इन्फ्रास्ट्रक्चर भी तैयार किया। वे इस सोच पर काम कर रहे थे कि परंपरागत मीडिया उनकी बातों को दबा देता है और अब उन्हें ऑनलाइन स्वतंत्रता का फायदा उठाना चाहिए। वे अपनी पोस्ट में भी इसी स्वतंत्रता की बात करते रहे और बाद में यह पाया गया कि उन्हें इसके लिए ज्यादा लाइक मिले, उनके संदेश ज्यादा फॉरवर्ड हुए, मुकाबले उनके, जो विभिन्न वर्गों के लिए अधिकार की बात कर रहे थे। भारत में २०१४ और २०१९ के चुनाव में ऐसा ही कुछ हुआ है | कहा जा रहा है |
अमेरिका में जब ऑनलाइन माध्यम जब आकार ले रहा था, तब अरब स्प्रिंग और ऑक्यूपाई वॉल स्ट्रीट जैसे कुछ आंदोलन इसी माध्यम से खड़े हुए थे और कुछ लोगों ने अनुमान लगाना शुरू कर दिया था कि इंटरनेट वामपंथ की वापसी का नया रास्ता तैयार करेगा, लेकिन हुआ इसका बिल्कुल उल्टा ही। यह ऐसा मुद्दा है, जिसे लेकर तुरंत किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता और यह ज्यादा पड़ताल की मांग करता है। यह प्रमाणित तथ्य है कि प्रिंटिंग व प्रसारण के युग में वामपंथ ने इन माध्यमों पर ठीक-ठाक पकड़ बनाई थी, हालांकि वहां भी बाजी अंत में मध्यमार्गियों के हाथ ही रही थी। यह कहा जा सकता है कि अभी यह ऑनलाइन युग का शैशव काल है, अंतत: बाजी किसके हाथ लगेगी, यह भविष्यवाणी अभी मुमकिन नहीं है। आज के समय का बड़ा सच सिर्फ इतना है कि अभासी दुनिया में दक्षिणपंथ ने वामपंथ को काफी पीछे छोड़ दिया है।
आभासी दुनिया में बढ़ते घटते पन्थ
श्री राकेश दुबे (वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार)
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