- अभिमत

अदालत ने न्याय किया, अब नागरिक पालन करें

प्रतिदिन :
अदालत ने न्याय किया, अब नागरिक पालन करें

बरसों पुराने मुकदमे का फैसला देश के सर्वोच्च न्यायलय ने कर दिया | चंद उन लोगों को जिनकी देश संविधान में कामचलाऊ आस्था है को छोडकर देश का आम नागरिकों ने इस फैसले का स्वागत किया है | निर्णय सामजिक, वैधानिक और वैज्ञानिक तीनो कसौटी पर खरा है | भारत का सर्वोच्च न्यायलय बधाई का पात्र है | इस फैसले ने भारत में न्याय होता है और पारदर्शी होता है, के सिद्धांत की स्थापना की है | देश में प्रजातंत्र है और न्याय होता है को इस अनुष्ठान ने प्रमाणिकता प्रदान की है |
इस अनुष्ठान से जुडी कुछ प्राचीन घटनाएँ इस अवसर पर दोहराया जाना जरूरी है | वर्ष १९८६ में फैजाबाद के जिला जज ने मंदिर का ताला खोलकर हिंदुओं को पूजा करने की इजाजत दे दी थी। इस फैसले की नींव १९४९ में ही उस समय रख दी गई थी, जब २२-२३ दिसंबर की रात विवादित परिसर में राम, सीता और लक्ष्मण की मूर्तियां ‘प्रकट’ हो गई थीं। अपने फैसलों को इस घटना का आधार न बना कर न्यायालय ने उन मंसूबों को नकार दिया जिनकी मंशा कुछ ओर थी | तत्समय भी ऐसा ही हुआ था तब इस संपत्ति को कुर्क कर रिसीवर तैनात कर दिया गया था। १९४९ में पंडित जवाहरलाल नेहरू और १९८६ में राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री हुआ करते थे।
इस मसले का दूसरा बड़ा पायदान सितंबर १९९० में आया, जब लालकृष्ण आडवाणी अपनी मशहूर ‘रथयात्रा’ पर निकले। २३ अक्तूबर को बिहार के समस्तीपुर में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। भारतीय जनता पार्टी के ही इतिहास में यह तारीख महत्वपूर्ण मानी जाएगी, शेष नजरिये अलग थे और हैं । इसके बाद देश भर में जैसी प्रतिक्रिया हुई, उससे तय हो गया कि अब मामला मंदिर-मस्जिद से आगे बढ़कर सरकारों को बनाने और बिगाड़ने का बन चुका है। ऐसा नहीं है कि महज कांग्रेस और भाजपा इस खेल में शामिल रहे हैं। इसका फायदा सूबाई क्षत्रपों को भी मिला है। आडवाणी की गिरफ्तारी के आदेश लालू यादव ने दिए थे। उस दौरान उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह मुख्यमंत्री हुआ करते थे। मुलायम के वक्त में ही फैजाबाद में पुलिस ने गोली चलाई थी, जिसमें करीब दस लोग मारे गए थे। घटना पुरानीं हो गईं, बरसों बीत गए, पर आज भी बिहार में लालू यादव और उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह अल्पसंख्यक मतदाताओं के मन पर राज करते हैं, क्या इससे कोई इंकार कर सकता है ?
इन सब राजनीतिक समीकरणों ने उत्तर भारत के सामाजिक ढांचे में ऐसा कंपन पैदा किया कि लगने लगा जैसे भीषण भूकंप आने से पहले धरती अंदर ही अंदर डोल रही हो , पर उसके ऊपर रह रहे लोगों को इसका आभास नहीं हो रहा हो । इस जानलेवा जलजले का प्राकट्य छह दिसंबर १९९२ को अयोध्या में बाबरी ढांचे के ध्वंस के साथ हुआ। इसके बाद हुए देशव्यापी दंगों में लगभग दो हजार लोग मारे गए और करोड़ों की संपत्ति स्वाहा हो गई। सब जानते है कि ये हालत राजनीतिज्ञों के लिए वरदान साबित होते हैं, वे उन्हें वोटों की फसल में बदलते है, परन्तु इस फसल को आम आदमी अपने खून-पसीने से सींचता है। १९९२ में मारे गये वे लोग ऐसे दुर्भाग्यशाली, नादान और अभिशप्त की तीन श्रेणी में ही विभक्त थे | कुछ तो दो जून की रोटी के कारण मारे गये और कुछ को जूनून ने लील लिया | जन सामान्य ने इस बार सबक लिया, पिछली बर्बादी को याद किया और राजनीति को मुकदमे की सुनवाई के दिन से ही संकेत दे दिया “ हर फैसला हमें मंजूर है, परन्तु हल चाहिए |” जनता इस विषय को चुनावी घोषणा पत्रों से निकाल कर नजीर चाहती थी | फिर से सर्वोच्च न्यायलय को एक बेहतरीन फैसले के लिए धन्यवाद |
देश की आला अदालत को इस मामले पर फैसला सुना दिया है। इंतजार की ये अंतिम घड़ियां अधीर करने वाली थीं | भारतीय मनीषा के सामने प्रजातान्त्रिक होने की एक चुनौती थी, भारतीय मनीषा ने शानदार प्रदर्शन किया है। विवादों पर निर्णय सुनाना अदालतों का कर्तव्य है और इन फैसलों पर अमल करना आम नागरिको का दायित्व। लेकिन, उनको भी सुनिए जो संविधान की अहमियत सांसद बनने की शपथ से ज्यादा कुछ नहीं समझते, ऐसे लोगों को एतराज है, तो हुआ करे | फैसला सामाजिक, वैज्ञानिक और वैधानिक है, जो दुनिया में नजीर बन गया है |

श्री राकेश दुबे (वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार)
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com

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