- अभिमत

क्यों मरते हैं, इतने बच्चे ?

प्रतिदिन
क्यों मरते हैं, इतने बच्चे ?

निमोनिया बच्चों के लिए घातक और जानलेवा बीमारी है। भारत में इस बीमारी से मरने वाले बच्चों की संख्या २०३० तक सत्रह लाख से कहीं ज्यादा हो सकती है, किंतु यदि समय रहते टीकाकरण, उपचार और पोषण में सकारात्मक सुधार किए जाएं तो कम-से-कम चार लाख बच्चों को बचाया जा सकता है। वैसे भी मलेरिया, दस्त और खसरा जैसी बीमारियों को मिलाकर जितनी मौतें होती है उससे कहीं ज्यादा मौतें अकेले इस खतरनाक रोग से होती है। वर्ष २०१६ में यह बीमारी दुनियाभर के करीब आठ लाख अस्सी हजार बच्चे निगल गई और वर्ष २०३० तक पांच बरस से कम उम्र के एक करोड़ बच्चों को निगल सकती है। ब्रिटेन स्थित एक गैर-सरकारी संगठन ‘सेव द चिल्ड्रन’ की ताजा अध्ययन रिपोर्ट में कहा गया है कि निमोनिया जैसी घातक संक्रामक बीमारी के चलते सर्वाधिक मौतें नाईजीरिया, भारत, पाकिस्तान और कांगो जैसे देशों में होती हैं। रिपोर्ट के मुताबिक भारत में वर्ष २०१६ में निमोनिया और डायरिया ने पांच बरस से कम उम्र के करीब ढाई लाख से अधिक बच्चों को अपनी चपेट में लिया था। निमोनिया और डायरिया की वजह से मरने वाले पांच बरस से कम उम्र के सत्रह फीसदी बच्चे भारत के थे। जाहिर है, भारत सहित तकरीबन पंद्रह देश अपनी स्वास्थ्य प्रणाली में ऐसा सुधार करने में पिछड़ रहे हैं ताकि बच्चों को निमोनिया जैसे रोग का सही-सही उपचार मिल सके। निमोनिया से मरने वाले बच्चों में ज्यादातर बच्चे दो बरस से कम उम्र के ही रहे हैं।
आंकड़े कहते है कि दुनियाभर में प्रति वर्ष दस लाख बच्चे निमोनिया से मर रहे हैं, जबकि निमोनिया को पराजित करने के लिए हमारे पास पर्याप्त ज्ञान और संसाधन मौजूद हैं। एक हैरानी भरी हकीकत यही है कि पिछले कुछ बरसों में, हर बरस किसी-न-किसी संक्रामक रोग के कारण बड़ी संख्या में बच्चे प्रभावित हुए हैं जिनमें से अधिकांश बच्चों की मौतें हुई हैं।कुछ राज्यों में सैकड़ों बच्चे ‘जापानी बुखार’ की भेंट चढ़ गए और सरकारें सोती रहीं। हमारे देश में एक ओर जहां स्वास्थ्य सेवाओं की घनघोर कमी है, वहीं सरकारी अमले की लापरवाही भी ना-काबिल-ए-बर्दाश्त है। बच्चों की सेहत को लेकर अपनाया जा रहा यह उपेक्षा भाव आखिर क्या दर्शाता है? स्वास्थ्य सेवाएं सुनिश्चित करना और उनके सुगम संचालन पर निगरानी रखना अगर सरकारी दायरे में नहीं आता तो फिर किसके दायरे में आता है? निजी चिकित्सालयों और निजी चिकित्सा-व्यवस्थाओं ने जैसे पारमार्थिक-लूट मचा रखी है उसकी रोकथाम के लिए हमारी सरकारें कोई सख्त कदम क्यों नहीं उठा पातीं?यह एक अहम सवाल है |
समय पर चिकित्सा-सुविधा मिल जाने पर हजारों बच्चों को मौत के मुंह में जाने से बचाया जा सकता है, किंतु हमारे देश में किसी-न-किसी बीमारी और चिकित्सा सुविधा के अभाव में सैकड़ों लोग मर जाते हैं। गरीबी, भूख, कुपोषण और अशिक्षा के साथ ही सेहत की समस्या भी हमारे विकास का मजाक बनाती रहती है। हमारे देश की चालीस फीसदी आबादी अठारह बरस से कम उम्र के बच्चों की है, लेकिन हमारी सरकारें इन बच्चों की शिक्षा, सुरक्षा और सेहत पर साढ़े तीन फीसदी भी खर्च नहीं करती।
‘विश्व बैंक’ की एक रिपोर्ट के अनुसार स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च की वजह से भारत में प्रतिवर्ष तकरीबन पांच करोड़ ग्रामीणों को गंभीर बीमारियों के चलते शहरों की ओर दौड़ना, प्रसव-पीडा के दौरान भटकना पड़ता है। प्रसूतिगृहों की गंदगी हमेशा ही चर्चा का विषय बनी रहती है। चिकित्सकों और नर्सों की लापरवाही के कारण कई बार तो गर्भवती महिलाओं की प्रसूति के दौरान ही गर्भस्थ शिशु सहित मृत्यु तक हो जाती है। देश में अभी तक साढ़े चार सौ दुर्लभ बीमारियां देखी जा चुकी हैं और वर्तमान में तकरीबन आठ सौ बच्चों में इसकी पहचान हुई है।

श्री राकेश दुबे (वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार)
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *