प्रतिदिन :
न्यायपालिका : कालेजियम फिर सवालों के घेरे में
उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश कुरियन जोसेफ (Former Judge Kurian Joseph) का कहना है कि न्यायपालिका (Judiciary) में हाल की गतिविधियों को देखने के बाद उन्हें न्यायिक नियुक्तियों के आयोग (NJC) संबंधी मामले में साल २०१५ में दिए गए फैसले में शामिल होने का अफसोस है।कुरियन अक्तूबर, २०१५ में सर्वोच्च न्यायालय के पांच जजों की संविधान पीठ द्वारा दिए गए फैसले की बात कर रहे थे।
राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, २०१४ में संसद के दोनों सदनों द्वारा सर्वसम्मति से पारित हुआ था और आयोग अधिनियम, तथा उच्चतम व उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया को व्यापक आधार देने का प्रावधान किया गया था। न्यायपालिका, कार्यपालिका के साथ-साथ ख्यात बुद्धिजीवियों की सहभागिता से नियुक्ति प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी व जवाबदेह बनाने की यह कवायद थी। मगर इस अधिनियम को संविधान पीठ द्वारा अवैध करार दिया गया और इसे न्यायपालिका की स्वतंत्रता को प्रभावित करने से जोड़कर संविधान की मूल भावना के खिलाफ बताया गया |
कुरियन ने अखिल भारतीय अधिवक्ता संघ के १३ वें राष्ट्रीय सम्मेलन में यह बात कही | वे ‘वर्तमान युग में भारतीय संविधान के सामने चुनौतियां’ विषय पर बोल रहे थे। उनके इस कथन ने उच्चतर न्यायपालिका की कार्यशैली से लेकर नियुक्ति की प्रक्रिया की तरफ पूरे देश का ध्यान एक बार फिर से खींचा है।
वैसे भी न्यायिक नियुक्तियों के बारे में हुए फैसलों पर अफसोस जाहिर करने वाले कुरियन अकेले न्यायाधीश नहीं हैं। इससे पहले न्यायमूर्ति जेएस वर्मा ने अपनी गलती स्वीकार करते हुए एक अन्य मामले (१९९३ ) के फैसले के बारे में कहा था कि “उनका मकसद न्यायपालिका को प्रधानता और प्रभुत्व देना नहीं था, बल्कि सिर्फ परामर्श को प्रभावकारी बनाना था।“ इतना ही नहीं, उस मामले में विजयी पक्ष के वकील रहे फली एस नरीमन ने २००९ में कॉलेजियम की कार्यशैली को देखते हुए कहा कि उक्त मुकदमा जीतने का उनको अफसोस है। आखिर इन सब बातों का अर्थ क्या निकलता है?
भारत में किसी कानून की वैधता सत्यापित करने का अधिकार उच्चतम न्यायालय को ही है। इसके अलावा संविधान के अनुच्छेद १३७ के तहत उसे न्यायिक समीक्षा की शक्ति भी प्राप्त है। उच्चतर न्यायपालिका के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए फैसले में तीन मामले उल्लेखनीय हैं, जो ‘जजों वाले तीन मामले’ के रूप में देश में जाना जाता है। एक- एसपी गुप्ता बनाम भारत सरकार १९८१ , दूसरा- उच्चतम न्यायालय एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम भारत सरकार १९९३ व तीसरा- १९९८ में अनुच्छेद १४३ के तहत राष्ट्रपति के अनुरोध पर दिया गया परामर्श।इन फैसलों ने समाज को एक नया नजरिया दिया था |
भारत के संविधान में उच्चतर न्यायपालिका में नियुक्ति का अधिकार स्पष्टत: राष्ट्रपति को दिया गया है। राष्ट्रपति द्वारा आवश्यकता समझने पर देश के प्रधान न्यायाधीश से परामर्श लेने का प्रावधान है। विभिन्न फैसलों के आधार पर इसका स्वरूप परिवर्तित करते हुए परामर्श लेने की प्रक्रिया को अनिवार्य बना दिया गया। प्रधान न्यायाधीश का तात्पर्य उच्चतम न्यायालय की संस्था के रूप में बताते हुए पांच जजों के एक कॉलेजियम की अवधारणा स्थापित की गई। इस प्रकार, संविधान में बिना उल्लेख के कॉलेजियम एक निकाय के रूप में अस्तित्व में आ गया। फिर कॉलेजियम की अनुशंसा को राष्ट्रपति के लिए बाध्यकारी बना दिया गया।
इसकी विभिन्न व्याख्याओं से संविधान की मूल प्रावधानित व्यवस्था का ही रूपांतरण हो गया। मूल व्यवस्था में नियुक्ति संबंधी अंतिम निर्णय का अधिकार राष्ट्रपति को प्राप्त था। नई व्यवस्था में अंतिम निर्णय कॉलेजियम का होता है, जो संविधान की मौलिक अवधारणा से अलग है। डॉ आंबेडकर ने कहा था कि “जजों की नियुक्ति का संपूर्ण और असीमित अधिकार राष्ट्रपति को देना खतरनाक है, दूसरी तरफ नियुक्तियों के मामले में प्रधान न्यायाधीश को वीटो का अधिकार देना भी सही नहीं है। इससे केवल विवादास्पद निर्णय की जगह कार्यपालिका के स्थान पर न्यायपालिका के हो जाने की संभावना रहेगी।“ और ऐसा हुआ भी |
सेवानिवृत्त प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई पर जब उनकी सहकर्मी ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया, तो उच्चतम न्यायालय की जिस पीठ ने इस मामले की पहली सुनवाई की, उसकी अध्यक्षता स्वयं गोगोई ने की। यह सामान्य न्यायिक सिद्धांत के प्रतिकूल था और है । अपने विरुद्ध मामले की सुनवाई खुदकरना , बल्कि उसे अपने खिलाफ षड्यंत्र बताकर इसकी अगली कार्रवाई को प्रभावित करना इससे प्रतिध्वनित हुआ |सवाल यहाँ यह है कि क्या न्यायाधीशों को भी आम लोगों की तरह किसी गलत काम का एहसास तभी होता है, जब उसे करने वाला कोई दूसरा हो? यह बड़ी विचित्र स्थिति है। विधायिका या कार्यपालिका के सीमा लांघने पर न्यायपालिका उसे नियंत्रित करती है, पर न्यायपालिका को तो स्वयं आत्म-नियामक की भूमिका निभानी चाहिए जो नहीं दिखता है |
संविधान का अनुच्छेद ५० न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक रखने की व्यवस्था है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता के सिद्धांत का संविधान में उद्गम स्थल यही है। संविधान निर्माताओं ने विधायिका या कार्यपालिका द्वारा न्यायपालिका के अधिकारों के अतिक्रमण या उसे प्रभावित करने की किसी भी स्थिति के निषेध के लिए ही यह व्यवस्था है। दूसरी तरफ, संसदीय प्रणाली में संप्रभुता निर्विवाद रूप से जनता में निहित होती है, जो उसका उपयोग अपने निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों के माध्यम से करती है। हमारा संविधान शासन के तीनों अंगों, कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच नियंत्रण व संतुलन की अवधारणा को प्रतिपादित करने के लिए जाना जाता है। न्यायपालिका से जुडे़ पुराने अनुभवी लोग जब कॉलेजियम व्यवस्था पर न सिर्फ असंतोष, बल्कि अफसोस प्रकट कर रहे हैं, तो इस दिशा में समय रहते आवश्यक पहल करनी होगी।कॉलेजियम (Kalajiyam) व्यवस्था के संतोषजनक ढंग से कार्य न करने के मामले में न्यायिक नियुक्ति के संबंध में किसी अन्य पारदर्शी प्रक्रिया के लिए सरकार द्वारा, न्यायपालिका को विश्वास में लेकर, नया अधिष्ठान तैयार करना चाहिए |