प्रतिदिन
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन की एक रिपोर्ट आई है। ‘भारत में शिक्षा पर सामाजिक-पारिवारिक उपभोग’ शीर्षक वाली इस रिपोर्ट के आंकड़े सरकारी शिक्षा व्यवस्था के प्रति लोगों के टूटते भरोसे को बताते हैं। यह रिपोर्ट कहती है कि जिस शिक्षा व्यवस्था पर भारत सरकार देश की जीडीपी का करीब चार प्रतिशत खर्च कर रही है, जिसके लिए केंद्रीय बजट में ९९ हजार ३०० करोड़ के खर्च का प्रावधान किया गया है, वह अपने ही नागरिकों को आकर्षित करने में नाकाम साबित हो रही है।
आखिर इस नाकामी की वजह क्या है? आंकड़ों के मुताबिक शहरी क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण भारत को सरकारी शिक्षा व्यवस्था पर ज्यादा भरोसा है। भरोसे से ज्यादा ग्रामीण क्षेत्र में कमजोर आर्थिक स्थिति वाले परिवारों की मजबूरी है कि वे चाहकर भी निजी क्षेत्र से अपने बच्चों को शिक्षा नहीं दिला सकते। सर्वेक्षण के मुताबिक ग्रामीण क्षेत्रों के प्री प्राथमिक स्तर के ४४.२ प्रतिशत छात्र ही सरकारी विद्यालयों में पढ़ रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के प्राथमिक स्तर के ७३.७ प्रतिशत और उच्च प्राथमिक यानी छठवीं से आठवीं कक्षा तक के ७६.१ प्रतिशत, सेकेंडरी और हायर सेकेंडरी स्तर के ६८ प्रतिशत छात्र ही सरकारी विद्यालयों के विद्यार्थी हैं। लेकिन उच्च शिक्षा के स्तर पर यह रुझान ग्रामीण क्षेत्रों में भी कम है। ग्रामीण क्षेत्रों के आधे से भी कम यानी ४९.७ प्रतिशत छात्र ही सरकारी कॉलेजों में शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं।
आंकड़े कहते हैं कि हायर सेकेंडरी स्तर के करीब चौथाई ग्रामीण बच्चे निजी विद्यालयों में पढ़कर अपना बेहतर भविष्य बनाने की कोशिश कर रहे हैं। जबकि देहाती इलाके के आधे से ज्यादा विद्यार्थियों को अपने बेहतर भविष्य के लिए सरकारी की तुलना में निजी क्षेत्रों के कॉलेजों पर ज्यादा भरोसा है।
जून,२०१८ तक के आंकड़ों के आधार पर तैयार इस रिपोर्ट में एक बात साफ है कि देश में निजी स्कूलों और संस्थानों ने अपना दबदबा बना लिया है। दिलचस्प यह है कि निजी क्षेत्रों के कुछ प्रतिष्ठित और नामी स्कूलों-कॉलेजों को छोड़ दें तो उनमें योग्य प्राध्यापक या अध्यापक नहीं है। सरकारी क्षेत्र के अध्यापक कहीं ज्यादा योग्य और प्रशिक्षित हैं। आखिर क्या वजह है कि भारी-भरकम बजट, अध्यापकों को बेहतर वेतन के बावजूद सरकारी शिक्षण व्यवस्था लगातार पिछड़ रही है?
अजब विडम्बना है कि सरकारी क्षेत्र में एक बार नौकरी मिल जाने के बाद नागरिक मानने लगता है कि उसका अब एक मात्र काम अवकाश प्राप्ति की तिथि तक हाजिरी लगाना और वेतन प्राप्त करना रह गया है। जबकि निजी क्षेत्र में लगातार बेहतर प्रदर्शन का दबाव रहता है। इस दबाव में नौकरी पर भी तलवार लटकी रहती है। इस स्थिति में वहां लगातार काम करना पड़ता है। सरकारी क्षेत्र में सरकारें कुछ जरूरी प्रशासनिक पदों को छोड़ दें तो दूसरे पदों पर नियमित नौकरियों की बजाय आउट सोर्सिंग पर भरोसा करने लगीं है। कुछ साल पहले तक पाठशालाओं में अध्यापकों की नियुक्ति में भी इसी सोच ने हीलाहवाली की और फिर शिक्षाकर्मी के नाम पर अस्थायी और कम वेतन में नियुक्तियों का दरवाजा खोल दिया गया। शिक्षाकर्मी व्यवस्था ने जितना फायदा नहीं पहुंचाया, उससे ज्यादा इससे सरकारी तंत्र के शैक्षिक स्तर को नुकसान पहुंचाया है।
आज शासन और प्रशासन में शीर्ष पर जो ताकतें हैं, उनमें से ज्यादातर ने अपनी कम से कम प्राथमिक या सेकेंडरी स्तर की शिक्षा टाट-पट्टी वाले विद्यालयों में पूरी की है, लेकिन कार्य क्षेत्र में प्रभावशाली बनने के बावजूद इन्होंने सामाजिक अवदान के रूप में इन विद्यालयों या शिक्षा को ताकत देने, उनका नैतिक ढांचा सुधारने और उनमें जवाबदेही और जिम्मेदारी बढ़ाने पर जोर नहीं दिया।
यही समय रहते सरकारी शिक्षण तंत्र ने खुद में सकारात्मक बदलाव लाने की संजीदा कोशिश नहीं की तो वह दिन दूर नहीं, जब सरकारी शिक्षण तंत्र पूरी तरह निजी हांथो का खिलौना हो जायेगा |