- अभिमत, विदेश

सब की निगाहें मोदी की ओर !

प्रतिदिन :

जैसा कि अभी तक सबको इंतज़ार है कि भारत, रूस -यूक्रेन युद्ध के मामले में कम से कम पुतिन से बात तो करेगा। अब तो दूसरे देश भी भारत से यही अपेक्षा कर करने लगे हैं। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से यह अपेक्षा फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों ने सलाह के रूप में की है। हाल ही में सम्पन्न नरेंद्र मोदी की विदेश यात्रा के दौरान पेरिस पड़ाव पर यह सब घटा। बड़ी ज़िम्मेदारी है, मोदी कैसे निभाते हैं? भारत के भविष्य के रिश्तों के साथ यह सब मोदी की अगली यात्रा का रोड मैप भी बनेगा।

मोदी की इस तीन दिवसीय यात्रा के अनेक आयाम हैं। उनका पहला पड़ाव बर्लिन था। १४ उभयपक्षीय करारों पर हस्ताक्षर के बाद जर्मन चांसलर ओलाफ शॉल्त्स ने भी यूक्रेन संकट को लेकर रूस को भला-बुरा कहा, और पीएम मोदी से आशा व्यक्त की कि वे पुतिन को परिवर्तित कर सकते हैं। यही समवेत स्वर कोपेनहेगन में नॉर्डिक शिखर बैठक में उपस्थित नेताओं के भी रहे ।

मोदी पूरी यात्रा में बहुत नपे-तुले अंदाज़ में ‘सबकी सुनो, और अपनी करो’ की भूमिका में दिखे । उन्होंने पूरी सावधानी बरती कि पुतिन की आलोचना पर उनकी हामी किसी भी प्लेटफॉर्म पर न हो। बर्लिन में जर्मन चांसलर ओलाफ शॉल्त्स ने कहा था कि हम रूस के विरुद्ध कड़े प्रतिबंधों में भारत का समर्थन चाहते हैं। पीएम मोदी ने इसके बरक्स पुतिन के शब्दों को दोहराया, ‘हम मानते हैं कि इस युद्ध में कोई विजयी नहीं हो सकता।’ मोदी ने रूस की निंदा से स्वयं को दूर रखा, पत्रकारों तक को सवाल पूछने की मनाही थी।

वैसे जर्मनी-भारत के बीच हुए समझौतों में ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन कम करने, अक्षय ऊर्जा व हाइड्रोजन सहयोग को सुदृढ़ करने के वास्ते टास्क फोर्स का गठन, जैव विविधता को बचाने के साथ ही कृषि भूमि के इस्तेमाल को बेहतर करने का निर्णय दोनों नेताओं ने किया है। भारत और जर्मनी के बीच जो १४ उभयपक्षीय समझौते हुए, उसमें प्रवासी, परमाणु शोध, दोनों सरकारों के बीच समन्वय व संवाद जैसे विषय भी सम्मिलित किये गये हैं। जर्मनी ने अक्षय ऊर्जा, हाइड्रोजन और शेष विषयों में सहयोग के वास्ते १० अरब यूरो की राशि आवंटित कर दी है। सबके बावजूद, बर्लिन के कूटनीतिक गलियारों में जिस गर्मजोशी की अपेक्षा हम कर रहे थे, वह संभवतः यूक्रेन की वजह से फीकी पड़ गई। यहाँ प्रश्न यह उठता है कि ऐसे समय प्रधानमंत्री मोदी का जर्मनी जाना क्या सही था? इस यात्रा में यूरोप को संदेश गया है कि भारत यूक्रेन मामले में निष्पक्ष भूमिका में है, और युद्ध का समापन चाहता है। इस संदेश का नतीजा दुश्वारियां बढ़ने का भी एक डर है।

इस समय यूरोपीय नेता चाहते थे कि पीएम मोदी, पुतिन की निंदा करें, रूसी पेट्रोल-गैस के साथ-साथ मिल्ट्री हार्डवेयर का बहिष्कार करें। ‘पर खुद यूरोप क्या वास्तव में ऐसा कर पा रहा है? २७ सदस्यीय यूरोपीय संघ में शामिल हंगरी और स्लोवाकिया ने दो टूक कह दिया, ‘हमारे पास रूस से गैस-तेल लेने के सिवा और कोई विकल्प नहीं है ।’ ब्रसेल्स में एक आर्थिक थिंक टैंक का नाम है, ‘ब्रुएगल’। २ मई, 2022 को ‘ब्रुएगल’ का निष्कर्ष था कि रूस से चरणबद्ध तरीके से तेल-गैस लेना यूरोप बिल्कुल बंद कर दे, पर यह संभव नहीं लगता।

दो वर्ष पहले अर्थात् २०२० तक रूस कुल कच्चे तेल के निर्यात का ५३ प्रतिशत यूरोप ही तो भेजता रहा है । यूरोप तेल का बायकॉट तो शायद कर लें, क्योंकि उसकी सप्लाई के विकल्प टैंकर हैं। मगर, गैस का बहिष्कार कैसे और कहां से संभव है? यूरोपीय नेता इस सवाल पर बगलें झांकते दिखते हैं। ‘ब्रुएगल’ का कहना है कि तेल-गैस का बहिष्कार करने का मतलब है, यूरोप दूसरी मंदी को दावत दे रहा है। एक और बात है, जाड़े से पहले गैस का इंतज़ाम नहीं हुआ तो ‘रूम वार्मिंग’ की मुश्किलें आन पड़ेंगी, जिससे लाखों जानों जोखिम में पड़ जाएँगी।

याद कीजिए,१९७३ में एक बार ओपेक देशों ने तेल पर प्रतिबंध लगाया था। तब जर्मनी को विवश होकर ‘कार फ्री संडे’ की घोषणा करनी पड़ी, और तेल की राशनिंग जैसा कदम भी उठाया था। आज भी यूरोपीय नेता चाहते हैं कि तेल न मंगाकर रूस का बजट बिगाड़ दिया जाए । इसके विपरीत रूस का दबाव है कि तेल-गैस चाहिए तो डॉलर में नहीं, रूबल में पेमेंट करो। रूस को आय का ४३ प्रतिशत , गैस व तेल के निर्यात से प्राप्त होता है। पैरिस स्थित ‘आईईए’ के मुताबिक़, ‘रूस का ६० प्रतिशत तेल ओएसईडी यूरोप को जाता है, और २० प्रतिशत चीन आयात करता है। यूरोप के जो देश ओएसईडी के सदस्य हैं, क्या उनमें रूस तेल-गैस आयात को लेकर साज निर्णय है? आर्गेनाइजेशन फॉर कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट की स्थापना 1961 में हुई थी, जिसका मुख्यालय पेरिस में है, इसके ३८ देश सदस्य हैं।

सर्व विदित है रूस तेल उत्पादन के मामले में अमेरिका, सऊदी अरब के बाद तीसरे नंबर पर है। जनवरी, २०२२ में रूस का तेल उत्पादन ११॰३ मिलियन बैरल प्रतिदिन (एमबीडी) का था। उस अवधि में अमेरिका का १७॰६ एमबीडी और सऊदी अरब का 12 एमबीडी दर्ज हुआ है । ‘तेल की क़ीमतों का आकलन करने वालों की दो अलग-अलग राय हैं। एक समूह का कहना है कि कच्चे तेल की क़ीमत १२० से १३० डॉलर प्रति बैरल पर आ जाएगी। तेल बाज़ार पर नज़र रखने वाला दूसरा समूह कहता है कि रूस डिस्काउंट प्राइस पर तेल बेचेगा, तब क्रूड ऑयल की क़ीमतें जून, २०२२ तक १०० डॉलर प्रति बैरल पर हो जाएंगी, और साल समाप्त होते-होते ६०डॉलर प्रति बैरल तक भाव गिर जाएँगे, क्या ऐसा होगा ?’

आज सबसे बड़ा सवाल है, भारत को इस अवसर का कितना लाभ मोदी दिला पाते हैं । ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट आई है कि अंतर्राष्ट्रीय दबाव के बावज़ूद, भारत की पब्लिक और प्राइवेट रिफानरियां रूस से कच्चे तेल के आयात को लगातार बढ़ाये जा रही हैं। रूसी तेल कंपनियां भारत को कच्चा तेल सस्ते में दे रही हैं। २०२१ के मुक़ाबले, इस वर्ष कच्चे तेल का आयात २० प्रतिशत अधिक है। यह मोदी व्यूह नीति का एक हिस्सा हो सकता है, दूसरा हिस्सा नार्डिक देशों से ऊर्जा सहयोग है ।

इंडिया-नार्डिक समिट में मोदी फिनलैंड, नार्वे, स्वीडेन, डेनमार्क और आइसलैंड के शासन प्रमुखों से क्लीन एनर्जी, आर्कटिक रिसर्च, तकनीक के क्षेत्र में निवेश व हाईड्रोजन ऊर्जा तकनीक में बहुपक्षीय सहयोग का संकल्प कर आये हैं। इधर चीन फ्यूल सेल इलेक्ट्रिक व्हीकल (ईसीईवी) उत्पादन में काफी आगे बढ़ चुका है, भारत ने २०२१ में ‘नेशनल हाइड्रोजन मिशन’ की घोषणा की थी। नार्डिक देश इस अभियान में भारत के साथ खड़े मिलते हैं, तो हाइड्रोजन ऊर्जा तकनीक के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन देखने को मिलेंगे।

श्री राकेश दुबे (वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार)
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com

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