- अभिमत

रूपये का गिरना मतलब महंगाई का बढना

रूपये का गिरना मतलब महंगाई का बढना !
भारतीय रिजर्व बैंक के डिप्टी गर्वनर माइकल पात्रा की एक रपट के अनुसार रुपये में एक प्रतिशत की गिरावट हमारी महंगाई को ०.१५ प्रतिशत बढ़ा सकती है, जिसका असर अगले पांच माह में दिख सकता है| कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतें काफी बढ़ने से रुपये की गिरावट भारतीय उपभोक्ताओं के लिए पेट्रोलियम कीमतों को और बढ़ा सकती है, जिसके कारण कच्चे माल, औद्योगिक ईंधन, परिवहन लागत आदि भी बढ़ सकती है| तेज महंगाई आर्थिक वृद्धि पर भी प्रतिकूल असर डालती है|

ऐसी ग्रोथ की राह को मुश्किल बना देती है, क्योंकि उससे उपभोक्ता मांग, व्यावसायिक और इंफ्रास्ट्रक्चर निवेश आदि पर प्रतिकूल असर होता है| इसीलिए रिजर्व बैंक को सरकार द्वारा निर्देश है कि वह मुद्रास्फीति को चार प्रतिशत तक सीमित रखे यानी मुद्रास्फीति की दर किसी भी हालत में छह प्रतिशत से अधिक नहीं होने देना है|

भारत में रुपये की अन्य मुद्राओं के साथ विनिमय दर बाजार द्वारा लंबे समय से निर्धारित होती रही है| सैद्धांतिक तौर पर सोचें, तो डॉलर और अन्य महत्वपूर्ण मुद्राओं की मांग और आपूर्ति के आधार पर रुपये की विनिमय दर तय होती है| पिछले कुछ समय से हमारे आयात अभूतपूर्व तौर पर बढ़े है, हालांकि निर्यात में भी रिकॉर्ड वृद्धि हुई है| आयात में तेज वृद्धि होने से हमारा व्यापार घाटा काफी बढ़ चुका है| पिछले काफी समय से पोर्टफोलियो निवेशक देश से भारी मात्रा में निवेश वापिस ले गये हैं|

इस सबका असर शेयर बाजार पर तो पड़ा ही है, डॉलर की आपूर्ति भी प्रभावित हुई है| जब भी रुपये में गिरावट शुरू होती है, तो सट्टेबाज आदि भी पैसा बनाने के लिए बाजार में डॉलर की कृत्रिम कमी कर देते हैं| रिजर्व बैंक भारत के विदेशी मुद्रा भंडार का संरक्षक तो है ही, उसके पास मुद्रा की विनिमय दर को स्थिर रखने का भी दायित्व है|
ऐसे में जब सट्टेबाज और बाजारी शक्तियां रुपये को कमजोर करने की कोशिश करती हैं, तो रिजर्व बैंक महंगाई को थामने, मौद्रिक स्थिरता और ग्रोथ संबंधी अपने दायित्व के मद्देनजर विदेशी मुद्रा बाजार में हस्तक्षेप करता है तथा आवश्यकता पड़ने पर अपने भंडार से डॉलर बेच कर आपूर्ति बढ़ा देता है|

विशेषज्ञों का मानना है कि रुपये में अवमूल्यन अवश्यंभावी है, इसलिए रिजर्व बैंक को उसका मूल्य थामने हेतु अपनी बहुमूल्य विदेशी मुद्रा दांव पर लगाने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इससे भंडार घटेंगे और रुपये में सुधार भी नहीं होगा| ऐसे विशेषज्ञों का तर्क है कि भारत में आयात बढ़ने की दर निर्यात बढ़ने की दर से हमेशा ज्यादा रहती है, इसलिए डॉलर की अतिरिक्त मांग उसकी कीमत को लगातार बढ़ायेगी|

दूसरे विशेषज्ञों का मानना है कि डॉलर की अतिरिक्त मांग यदा-कदा उत्पन्न होती है और फिर परिस्थिति सामान्य हो जाती है| ऐसे में बाजारी शक्तियां रुपये में दीर्घकालीन गिरावट न लाने पाएं, इसलिए रिजर्व बैंक का हस्तक्षेप महत्वपूर्ण है| पूर्व में भी रिजर्व बैंक द्वारा डॉलर की बिक्री से रुपये को थामने में मदद मिली है| स्थिति सामान्य होने पर रिजर्व बैंक पुनः डॉलर खरीद कर अपने भंडार की भरपाई कर लेता है|काफी समय से सरकारों द्वारा मुक्त व्यापार की नीति अपनायी गयी और इसके तह यह प्रयास हुआ कि आयात शुल्क कम से कम रखे जाएं|

चीन समेत कई देशों द्वारा डंपिंग से हमारे उद्योगों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा और आयात पर हमारी निर्भरता बढ़ती गयी, साथ ही, व्यापार घाटा भी अभूतपूर्व तरीके से बढ़ गया. इसका सीधा असर डॉलर की मांग पर पड़ा और रुपये का अवमूल्यन होता गया| दो वर्षों से सरकार के ऐसे कई प्रयास सामने हैं, जिनसे आयात पर निर्भरता कम हो सकती है| आत्मनिर्भर भारत योजना के परिणाम सामने आ रहे हैं, आयात में कमी से डॉलर की मांग घट सकती है|

श्री राकेश दुबे (वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार)
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com

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