- अभिमत

पेंशन की राजनीति या राजनीति में पेंशन

प्रतिदिन विचार :

पेंशन की राजनीति या राजनीति में पेंशन

यद्यपि अभी मध्यप्रदेश सरकार के फैसले का इंतजार प्रदेश के पेंशनर कर रहे हैं, लेकिन गत सप्ताह पडौसी राज्य छत्तीसगढ़, राजस्थान पंजाब और झारखंड की तरह उन राज्यों में शामिल हो गये जिन्होंने राष्ट्रीय पेंशन योजना (एनपीएस) को त्यागकर पुरानी पेंशन योजना (ओपीएस) को बहाल करने की बात कही है। तमिलनाडु, केरल और आंध्र प्रदेश के बारे में भी सूचना है कि वे भी ऐसा ही करने का विचार कर रहे हैं।

गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव लड़ रही कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने वादा किया है कि अगर वे सत्ता में आती हैं तो पुरानी पेंशन योजना को वापस लाएंगी। सेवानिवृत्त सैन्य कर्मियों द्वारा एक रैंक एक पेंशन (ओआरओपी) की मांग की तरह ही सरकारी कर्मचारी लंबे समय से पुरानी पेंशन की वापसी की मांग कर रहे हैं। ये कर्मचारी एनपीएस की तुलना में स्पष्ट लाभ वाली पुरानी योजना को तरजीह दे रहे हैं।

ओआरओपी के रूप में भाजपा ने एक अहम चुनावी वादा २०१४ में सत्ता में आने के एक साल के भीतर लागू किया था, ठीक उसी तर्ज पर ओपीएस की वापसी दीर्घावधि में राज्यों के लिए स्थायित्व वाली साबित नहीं होगी। हकीकत में इसी वजह के चलते पश्चिम बंगाल को छोड़ देश के शेष राज्यों ने एनपीएस को अपना लिया था और १ अप्रैल, २००४ के बाद सेवा में आने वाले कर्मचारियों के लिए उसे अनिवार्य कर दिया गया।

दोनों योजनाओं के कर लाभ हैं, लेकिन ओपीएस में मुद्रास्फीति से संबद्ध महंगाई भत्ते की व्यवस्था है जो हर छह महीने पर दिया जाता है। सबसे अहम अंतर यह है कि सरकार ओपीएस भुगतान की पूरी लागत वहन करती है जबकि एनपीएस के तहत कर्मचारी अपने वेतन और महंगाई भत्ते का १० प्रतिशत हिस्सा योगदान के रूप में देता है जबकि सरकार १४ प्रतिशत का योगदान करती है। इस राशि को पेंशन फंड नियामक एवं विकास प्राधिकरण द्वारा स्वीकृत विभिन्न योजनाओं में निवेश किया जाता है।

इसके अलावा इस राशि को इक्विटी और डेट बाजार में भी निवेश किया जाता है। यह सब दिशानिर्देशों के अनुरूप और कर्मचारी के चयन के मुताबिक किया जाता है। ऐसे में एनपीएस राज्यों के वित्तीय बोझ को काफी कम करती है। यह भी एक प्रमुख वजह है जिसके चलते संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने पिछली सरकार द्वारा पारित कानून को न केवल आगे बढ़ाया बल्कि उसका प्रचार प्रसार भी किया।

नि:शुल्क उपहारों की तरह ओपीएस भी एक गैरजवाबदेह लोकलुभावन कदम होगा, वह भी ऐसे समय जबकि अधिकांश राज्यों का राजस्व दबाव में है। भारी कर्ज में डूबा हुआ पंजाब इसका अच्छा उदाहरण है। चालू वित्त वर्ष के लिए उसका अनुमानित पेंशन आवंटन राज्य के कुल कर राजस्व का करीब एक तिहाई है। अगर वेतन और ब्याज भुगतान को शामिल कर दिया जाए तो देनदारियां राज्य के कर राजस्व का करीब ४६ प्रतिशत हो जाएंगी।

गुजरात की वित्तीय स्थिति पंजाब से बेहतर है लेकिन पेंशन और वेतन भत्ते उसके कर राजस्व का करीब ७२ प्रतिशत हिस्सा ले जाते हैं। शायद कुछ राज्य खस्ता वित्तीय हालत के कारण ही पुरानी पेंशन योजना को अपनाने की घोषणा तो कर रहे है लेकिन इसकी तारीख नहीं बता रहे है।

यह भी संभव है कि कई अन्य राज्य जल्दी ही ओपीएस अपनाने की मांग शुरू करें। दरअसल नैशनल मूवमेंट फॉर ओल्ड पेंशन स्कीम्स इसके लिए सक्रिय अभियान चला रहा है और उसने हर राज्य में अपनी शाखाएं बना रखी हैं। इन बातों से यही संकेत मिलता है कि राज्य सरकारें और पेंशन फंड नियामक एवं विकास प्राधिकरण कर्मचारियों के बीच एनपीएस को सही ढंग से व्याख्यायित कर पाने में नाकाम रहा है। अंतत: इसका बोझ देश के सीमित संख्या में मौजूद कर दाताओं को ही उठाना पड़ेगा।

श्री राकेश दुबे (वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार)
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com

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