प्रतिदिन विचार :
नया पाठ्यक्रम कब तक, अभी निश्चित नहीं ?
पाठ्यक्रम में बदलाव के साथ स्कूली शिक्षा का चेहरा और तरीका बदल सकता है। अब कला, मानविकी, विज्ञान, वाणिज्य, अर्थशास्त्र के बीच सरहदें समाप्त करने की अनुशंसाएं एक विशेषज्ञ समिति ने की हैं। यह समिति भारत सरकार द्वारा बनाई गई है। यदि 10वीं और 12वीं के छात्र में क्षमताएं और बहुदृष्टियां हैं, तो वह सिर्फ कला, मानविकी या विज्ञान अथवा वाणिज्य तक ही सीमित नहीं रहेगा, बल्कि सभी अध्ययन एक साथ कर सकेगा।
यह अध्ययन चार वर्ष तक, स्नातक स्तर तक, जारी रहेगा। विद्यार्थी को सालाना बोर्ड की परीक्षा के लिए तैयारी नहीं करनी पड़ेगी। वह चार साल के कालखंड में अपने अध्ययन पूरे कर सकेगा और उनके मुताबिक परीक्षा दे सकेगा। यह सोच और दृष्टि नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी निहित है।
विशेषज्ञ समिति ने सरकार को ऐसा पाठ्यक्रम बनाने की सलाह दी है, ताकि पढ़ाई बहुआयामी और बहुअनुशासनीय साबित हो सके। पहले शिक्षा प्रणाली अलग-अलग सीमाओं में बंटी और बंधी थी। यदि छात्र स्नातक स्तर तक कला-मानविकी विषयों में अध्ययन करना चाहता था, तो वह कुछ ही विषयों तक सीमित थी। यही स्थिति विज्ञान की रही है। चिकित्सा विज्ञान वाले छात्र डॉक्टरी की तरफ बढ़ते थे। विज्ञान की दूसरी दिशा गणित,फिजिक्स, कैमिस्ट्री आदि की थी। वाणिज्य की स्नातकी इन सबसे भिन्न रही है। इन दशकों में यह महसूस किया जाता रहा है कि परंपरागत शिक्षा या कला, विज्ञान, वाणिज्य की सीमाएं विद्यार्थी को वह बुनियादी ज्ञान प्रदान नहीं कर पाती थीं, जो समय की गंभीर चुनौतियों के मद्देनजर अनिवार्य है।
आज औसत किशोर छात्र के सामने भी जलवायु-परिवर्तन और अन्य पर्यावरणीय संकटों की गंभीर चुनौतियां हैं। नौजवान होता छात्र अपनी परंपरागत पढ़ाई के जरिए यह नहीं सीख पाता कि समकालीन चुनौतियों से लड़ा कैसे जाए? और मानवीय अस्तित्व को लंबे समय तक सुरक्षित कैसे रखा जाए? आज के छात्र को राजनीति, अर्थशास्त्र, समाज-शास्त्र के साथ-साथ प्राकृतिक आपदाओं, बदलावों का अध्ययन भी पढऩा जरूरी है। अब शिक्षा के अनुशासन और प्रकार बहुकिस्मी होने चाहिए। यदि आज एक औसत जानकार को अर्थशास्त्रीय मॉडल को आकार देना है, तो मानवीय समझ की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
वाणिज्य के मायने अब सिर्फ व्यापार, बही-खाते ही नहीं हैं। उनके विस्तार हुए हैं। औद्योगिक क्रांतियों में मानविकी के महत्त्व को कई शोध-पत्रों में रेखांकित और विश्लेषित किया गया है। यदि स्कूली स्तर से ही शिक्षा में बहुआयामी बदलाव करने हैं, तो नए पाठ्यक्रम फ्रेमवर्क पर सोचना और क्रियान्वित करना लाजिमी है। यह पाठ्यक्रम कब तक तैयार हो पाएगा, अभी निश्चित नहीं है। अभी तो अनुशंसाएं सामने आई हैं। इन पर विपक्ष और शिक्षा विशेषज्ञों की रायशुमारी भी अपेक्षित है।
सवाल यह भी मौजूँ है कि परंपरागत शिक्षा का क्या होगा? छात्र प्राथमिक शिक्षा के दौरान भाषा, लिखावट, गणित आदि सीखता रहा है, तो उस प्रणाली का क्या होगा? जिन छात्रों में गणित के प्रति एक भय, एक निश्चित धारणा है, उसका क्या होगा? क्या गणित और परंपरागत प्रणाली के स्थान पर खेल, गतिविधियां, खोज और बहस आधारित प्राथमिक सीख आदि को लागू किया जाएगा? आने वाले समय में विशेषज्ञ समिति ‘प्री-ड्राफ्ट’ को लेकर कई बैठकें करेगी, विमर्श होगा। यह सुनिश्चित करना सबसे जरूरी काम है कि जो भी सुधार और सुझाव लागू किए जाएंगे, वे अस्थायी होंगे और किसी भी स्तर पर अन्याय नहीं किया जाएगा।
शिक्षा मंत्रालय के डाटा के मुताबिक, देश में एक लाख से अधिक सरकारी स्कूल ऐसे हैं, जिनमें औसतन एक ही अध्यापक कार्यरत है। उस पर कई और जिम्मेदारियां भी हैं। वह इकलौता अध्यापक पढ़ाई-लिखाई को ‘रचनात्मक गतिविधि’ कैसे बना सकता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में ऐसी अपेक्षा की गई है। मिश्रित किस्म की शिक्षा को ऐसे अध्यापक कैसे लागू कर पाएंगे? शिक्षा नीति को लेकर कई और चिंताएं भी हैं। अध्यापक को सशक्त करने की आदर्श-बात कही गई है। सुधार होने ही चाहिए।