भारत
- अभिमत

भारत तो भारत है

प्रतिदिन विचार:

भारत तो भारत है ।

यह एक सराहनीय पहल है – “राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) ने सिफारिश की है कि पाठ्यक्रमों में ‘इंडिया’ की जगह ‘भारत’ शब्द का इस्तेमाल किया जाए।“ इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आजादी के 76 साल बाद भी देश में एक वर्ग ऐसा भी है, जो इन दोनों शब्दों को परस्पर विरोधी मानता है। फिलहाल यह एक समिति की सोच और अनुशंसा तक ही सीमित है। संविधान के अनुच्छेद एक में ‘इंडिया, जो भारत है’ का उल्लेख है। अर्थात हमारे संविधान-निर्माताओं को दोनों ही शब्द स्वीकार्य थे और उन्हें परस्पर पूरक माना गया था।

कुछ लोग ‘इंडिया’ को औपनिवेशिक अवशेष मानते हैं । ‘इंडिया’ की व्याख्या यूनानी भाषा, उच्चारण, सिकंदर और सिन्धु घाटी की सभ्यता से जोड़ कर की जाती रही है। हमें इतने प्राचीन इतिहास, भाषा और उसके प्रभावों से क्या लेना-देना है? कब तक विदेशियों पर आश्रित रहेंगे हम? भारत एक स्वतंत्र, संप्रभु, लोकतांत्रिक राष्ट्र है, जिसका अपना सर्वसम्मत संविधान है। ज़रूरी है कि सभी विमर्श 1947 के बाद से ही किए जाएं।

‘इंडिया’ को ‘भारत’ करने की प्रक्रिया भी कोई संगठन या परिषद लागू नहीं कर सकती। उसके लिए संसद में संविधान संशोधन का प्रस्ताव पारित कराना होगा। यदि एनसीईआरटी हमारे स्वतंत्रता आंदोलन का सम्यक इतिहास छात्रों को पढ़ाना चाहती है, तो उसे 1857 से 1947 तक अलग-अलग खंडों में संकलित कराया जाए और उसे नए सिरे से लिखा जाए। यह बहुत व्यापक और शोध पूर्ण कार्य है और इसके लिए पर्याप्त समय भी चाहिए। इस इतिहास-लेखन के संदर्भ में अंग्रेजी हुकूमत के कालखंड भी स्वयंमेव आ जाएंगे, लिहाजा ‘एक पंथ, दो काज’ किया जा सकता है।

सर्वमान्य तर्क है कि स्कूली पाठ्यक्रम के लिए सब कुछ सार-रूप में होना चाहिए। शेष और विस्तृत अध्ययन छात्र उच्च शिक्षा के दौरान, अपनी रुचि के मुताबिक, कर सकते हैं। प्राचीन काल, आदि काल, पाषाण काल, मुगल काल सरीखे अतीतों की लीक पीटते रहने का कोई औचित्य नहीं है। इन्हें विभिन्न इतिहासों के परिप्रेक्ष्य में शोधार्थियों के लिए छोड़ देना चाहिए। स्कूली छात्रों के कोमल मन को प्रदूषित नहीं किया जाना चाहिए। ऐसे इतिहास को पढऩे से खटास और नफरत के अलावा कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है।

‘इंडिया’ बनाम ‘भारत’ का अभियान भी बेमानी है। ऐसा राष्ट्रवाद, हिन्दूवाद, हिन्दीवाद के मद्देनजर किया जा रहा है अथवा इसका कोई सांस्कृतिक महत्त्व भी है ! बेशक हमारी जड़ें, हमारा परिचय और हमारी सांस्कृतिक विरासत ‘भारत’ में ही निहित है। विष्णु पुराण, ब्रह्मपुराण और कई प्राचीन, धार्मिक ग्रंथों में ‘भारतम्’ का उल्लेख मिलता है। इसके साथ ही हमारे देश को ‘आर्यावर्त’, ‘हिन्द’, ‘हिन्दुस्तान’, ‘भारतखंड’, ‘हिमवर्ष’ आदि नामकरणों से भी संबोधित किया जाता रहा है। किसी को कोई आपत्ति भी नहीं है। ‘भारत’ के अलावा ‘इंडिया’ के साथ भी कई मिथकीय कथाएं जुड़ी हैं। इन्दुमती अयोध्या के राजा अज की पत्नी और दशरथ की माता थीं। जब राजा राम अयोध्या के सिंहासन पर बैठे, तो उनके कालखंड में दादी इन्दुमती का नाम भी प्रचलित था, जिसे आज हम ‘इंडिया’ कहते हैं।

‘भारत’ नाम राजा राम के छोटे भाई भरत के नाम पर पड़ा। किंवदन्ति यह भी है कि राजा दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र का नाम भी ‘भरत’ था। उन्हें ऋषि कण्व ने ‘चक्रवर्ती सम्राट’ बनने का आशीर्वाद दिया था, लिहाजा उनके आधार पर हम ‘भारत’ बने। जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के ‘चक्रवर्ती पुत्र’ भरत विश्व-विजयी सम्राट थे, लिहाजा देश का नाम ‘भारत’ पड़ा। बहरहाल, दोनों शब्द प्रचलित हैं। शब्दों पर कोई विवाद करने से बेहतर है, शब्द की शक्ति और उसके अर्थ को आत्मसात् करना।

श्री राकेश दुबे (वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार)
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com

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