- अभिमत

क्या देश खाद्य-संकट की ओर बढ़ रहा है ?

प्रतिदिन विचार:

सरकार के दावे कुछ भी हों, आँकड़े कैसे भी बताए जा रहे हो। हक़ीक़त आम आदमी जनता है। देश के आम आदमी के खाने की थाली अब भी महंगी है और यह महंगाई बढऩे के आसार हैं। कहने को दूसरी तिमाही में हमारी अर्थव्यवस्था की विकास-दर 7.5 प्रतिशत से अधिक रही है। भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार वी. अनंता नागेश्वरन का आकलन है कि भारतीय अर्थव्यवस्था 2023-24 ( 31 मार्च तक) के वित्त वर्ष में 6.5 प्रतिशत की दर से बढ़ेगी। यदि चार साल की औसत विकास-दर को देखें, तो वह 4.5 प्रतिशत के करीब है।

आज आटा 16 प्रतिशत , चावल करीब 15प्रतिशत , चीनी करीब 11 प्रतिशत और तुअर दाल 16 प्रतिशत से अधिक महंगी हुई है। इन वस्तुओं के थोक के दाम कुछ भी हो , लेकिन खुदरा बाजार में मनमानी जारी है। दाम लगातार बढ़ाए जा रहे हैं। यह देश की अर्थव्यवस्था पर निगाह रखने वाली एजेंसी ‘सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी’ (सीएमआईई) एवं कुछ सरकारी एजेंसियों की ताजा रपट के निष्कर्ष हैं।

आने वाले तीन माह के दौरान भी इन खाद्यान्नों के दाम 14.55 प्रतिशत बढ़ सकते हैं। बीते 6 महीने के दौरान आटा, दाल, चावल और चीनी के दाम औसतन 14 प्रतिशत बढ़े हैं। सत्ता के पैरोकारों की दलील रही है कि देश के 81 करोड़ से ज्यादा गरीबों को तो ‘प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना’ के तहत मुफ्त 5 किलो माहवार अनाज मुहैया कराया जाता है, लिहाजा खाद्यान्न के प्रति आम आदमी निश्चिंत हो सकता है। ऐसे में आम आदमी अपनी आमदनी को किसी और वस्तु तथा सेवा में खर्च कर सकता है। हक़ीक़त में सरकारी पैरोकारों ने ये दलीलें 13.5 करोड़ भारतीयों को गरीबी से बाहर निकालने के संदर्भ में दी हैं। गरीबी का मुद्दा तो आज भी विवादास्पद है, क्योंकि ऐसा आकलन करने वाले बौद्धिक, सामाजिक वर्ग के जिम्मेदार लोग हैं, जो आज भी 23.5 करोड़ भारतीयों को ‘गरीबी-रेखा’ के तले मानते हैं, क्योंकि वे गरीब 375 रुपए रोजाना कमाने में भी असमर्थ हैं। इस गम्भीर मुद्दे पर विश्लेषण और बहस कभी भी की जा सकती है। इस बात से कभी भी और कोई भी इनकार नहीं कर सकता कि गरीबी और खाद्यान्न की लगातार महंगाई के आपसी गहरे संबंध हैं।

यह सवाल आम आदमी द्वारा बार-बार पूछा जाता रहा है कि अर्थव्यवस्था के विकास के बावजूद आम खाने की थाली महंगी क्यों होती रहती है? फिलहाल महंगे दामों के बुनियादी कारण कमजोर मानसून, किसानों का दूसरी फसलों की तरफ शिफ्ट होना और ज्यादा गर्मी से उत्पादन प्रभावित माने जा रहे हैं। इससे जुड़ा एक और सवाल है क्यों हम आज भी मौसम पर आधारित कृषि के भरोसे हैं? कृषि की विकास-दर घटकर 1 प्रतिशत से कुछ ज्यादा तक क्यों लुढक़ आई है? कोरोना-काल में भी कृषि की विकास-दर 3 प्रतिशत से अधिक रही थी। केंद्र सरकार ने दामों को नियंत्रित करने के मद्देनजर साल भर अपने भंडारों से गेहूं निकाल कर खुले बाजार में बेचा है।

नतीजतन आज गेहूं के भंडारण 2.39 करोड़ टन ही बचे हैं। यह बीते साल के 3.77 करोड़ टन से कम है। मतलब साफ़ है सरकारी भंडारों में गेहूं करीब 37 प्रतिशत कम हो गया है। यह भी आकलन किया गया है कि भारत सरकार रूस से, पहले चरण में, 10 लाख टन गेहूं का आयात कर सकती है। गेहूं और चावल के उत्पादन में भारत विश्व में दूसरे स्थान का देश रहा है। फिर भी गेहूं की कमी का मुद्दा सवालिया है। सिर्फ गेहूं ही नहीं, चावल, दाल, गन्ना आदि का उत्पादन भी, बीते सालों की तुलना में, कम रहा है।

अब सवाल यह है क्या भारत किसी संभावित खाद्य-संकट की ओर बढ़ रहा है? सीएमआईई की रपट के मुताबिक, गन्ने की फसल से 3.32 करोड़ टन इस बार एथेनॉल में शिफ्ट होने के कारण चीनी के दाम बढ़ेंगे। महंगे दामों का असर इन चुनावों में देखने में नहीं आया है, पर आम चुनाव में ऐसा होने की सम्भावना नहीं है, खाद्यान्न की बढ़ती क़ीमतें एक मुद्दा बन सकता है।

श्री राकेश दुबे (वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार)
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com

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