- अभिमत

सेना के निर्णायक प्रमुख ?

प्रतिदिन
सेना के निर्णायक प्रमुख ?
ऐसा लगता है, सेना के निर्णायक प्रमुख [चीफ ऑफ डिफेंस स्टॉफ ] की नियुक्ति जल्दी ही हो जाएगी| देश की सेनाओं के तीनों अंगों-नौसेना, थलसेना व वायुसेना-तीनों की कमान उसके पास होगी और वह उनके बीच समन्वय में अपनी भूमिका निभायेगा। कारगिल युद्ध के दौरान उक्त तीनों सेनाओं के एकजुट आपरेशन में आई कठिनाइयों से यह विचार उपजा है | पाकितान व चीन के साथ पहले हुए अन्य युद्धों में भी सेना के तीनों अंगों में समन्वय की कमी सामने आई ही थी। वैसे यह सेना के सम्बन्ध में पुरानी नीतियां त्याग कर उनके बीच संयोजन की नयी स्थितियां बनाने की कोशिश है|
एक सवाल सहज है कि संविधान लागू होने के बाद से अब तक केन्द्र में बनी सरकारों ने इस पद की आवश्यकता क्यों नहीं समझी ? १९६२ को याद करें तो भारत-चीन सीमा विवाद संघर्ष के रूप में बदला, जो मैकमोहन लाइन से जुड़ी चीन की आक्रामकता का परिणाम था, तो तत्कालीन रक्षामंत्री वी.के. कृष्णमेनन ने थलसेना को भी चार भागों में विभाजित कर दिया था। इन चारों के प्रमुखों को समान अधिकार भी थे। इससे पहले ब्रिटिशकालीन भारत में सेनाओं का प्रमुख गवर्नर जनरल हुआ करता था, जबकि स्वतंत्रता के बाद संविधान के तहत यह दायित्व राष्ट्रपति को दिया गया।

देश में यह परिपाटी मजूबत होती जा रही है की राष्ट्रपति अपने विवेक के बजाय प्रधानमंत्री की सलाह के अनुसार फैसले करते आ रहे हैं इसलिए सेना और सरकार के बीच मतान्तर होना स्वाभाविक है । देश की रक्षा के लिए सेना आवश्यक है, लेकिन आन्तरिक राज्य संचालन में उसकी कोई भी भूमिका संकटकाल के समय ही हो सकती है। इसीलिए संविधान में उसे केन्द्र या राष्ट्रपति के अधीन रखा गया तो वित्त, डाक, तार व संचार आदि की व्यवस्थाएं भी केन्द्र के हिस्से में हैं । कारगिल युद्ध की बात करें तो वह एक ऐसा पहाड़ी क्षेत्र है, जहां आमतौर से आबादी का नगण्य हिस्सा ही बसता है। उक्त युद्ध से पहले कश्मीर के लद्दाख वाले हिस्से में अवस्थित इस क्षेत्र की रक्षा व्यवस्था भी कमजोर ही चली आती थी। चूंकि इसकी सीमाएं पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर से मिली हुई थीं, इसलिए उसने घुसपैठ में इसका लाभ उठाया। भारतीय सेना ने पाकिस्तानियों को खदेड़कर कई बार भगा दिया |

अब हालात दूसरे हैं |ऐसे में यह प्रश्न स्वाभाविक है कि भारत की तीनों सेनाओं का एक चीफ बनाना देश की सैन्य अथवा राजनीतिक आवश्यकताओं के कितना अनुरूप है ? क्या इससे वाकई बेहतर समन्वय स्थापित होगा? या सिर्फ सैनिक अधिकारों के केन्द्रीकरण का न लौटने वाला प्रयोग ही इसकी नियति रहेगी |यह प्रश्न भी समयोचित है कि तीनों सेनाओं के निर्णायक प्रमुख की नियुक्ति की परिकल्पना हमारे संविधान के मूल उद्देश्यों और अपेक्षाओं की पूर्ति करेगी ?अभी भी देश के राष्ट्रपति तीनों सेनाओं का प्रमुख है, जो प्रधानमंत्री की राय के अनुसार कार्य करता है। ऐसे में तीनों सेना का निर्णायक प्रमुख कभी पडौसी देशों की भांति कुछ और विचार बनाएगा तो स्थिति विचित्र बनेगी |व ऐसी स्थितियों में सभी सेनाओं को जोड़ने का काम सेनाओं का वर्तमान सर्वोच्च कमांडर स्वतंत्र रूप से भलीभांति कर सकता है | भारत के महामहिम राष्ट्रपति अपनी इस भूमिका अभी तक खरे उतरे हैं | उनके स्वतंत्र विवेक में वृध्दि के प्रयास होना चाहिए, यही लोकतंत्र का तकाजा है |

श्री राकेश दुबे (वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार)
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com

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