- अभिमत

कश्मीर : कोई खिड़की, कोई रोशनदान तो खोलिए !

प्रतिदिन
कश्मीर : कोई खिड़की, कोई रोशनदान तो खोलिए !
जम्मू- कश्मीर में धारा ३७० हटने के बाद क्या हो रहा है? किसी को कुछ नहीं पता | राहुल गाँधी और उनके साथ गये प्रतिनिधि मंडल के सदस्य रहे हों या सीताराम येचुरी सब बैरंग लौटे | जाना तो मुझ जैसे कुछ पत्रकार भी चाहते हैं, पर अनुमति नहीं है | जबकि हम पत्रकारों को कोई सभा नहीं करनी है, कोई जुलुस नही निकालना है | हमें भोपाल और देश के अन्य भागों में पढ़ रहे हजारों छात्रों और कामकाजी लोगों के माता-पिता की ख़ैर खबर लेना है, जिनके बीच ५ अगस्त२०१९ से कोई सम्पर्क नहीं हुआ |
राजनीतिक दल इस मामले को अपनी तरह भुना रहे हैं | कोई इधर है कोई उधर | इधर- उधर से देखने वाले अपने नजरिये व्हाट्स एप विश्वविद्यालय से लेकर अख़बार और पुस्तकों में व्यक्त कर रहे हैं | इस सबसे ज्ञान [प्रायोजित ] जरुर मिल रहा है, पर वो सब छिपा है, जो आज की मानवीय जरूरत है, खैर-खबर सच्ची खैर खबर | सरकारी कारिंदे जो कश्मीर में तैनात हैं, मध्यप्रदेश में रह रहे अपने परिजनों से रोज बात कर रहे हैं, पर आम नागरिक जिनमें पत्रकार, छात्र, डाक्टर और वकील हैं उनके फोन बंद हैं | चिठ्ठी, कुरियर सब बंद |
पत्रकारों की संरक्षक संस्था प्रेस काउन्सिल आफ इण्डिया है| प्रेस काउंसिल का मुख्य कार्य प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा करना है लेकिन उसने भी सर्वोच्च न्यायालय में अपने आवेदन में संचार व्यवस्था और निर्बाध तरीके से आवागमन पर पाबंदी को देश की एकता और सार्वभौमिकता के हित में बताया है। अब यह सवाल उठ सकता है कि अभिव्यक्ति की आजादी और मीडिया की स्वतंत्रता महत्वपूर्ण है या फिर राष्ट्र की एकता और अखंडता के हित में कुछ समय के लिये इस तरह की पाबंदी।

प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष और सदस्यों के बीच भी मतभेद हैं | सदस्यों का कहना है कि मीडिया पर पाबंदियों के समर्थन में शीर्ष अदालत में आवेदन दायर करने के निर्णय से उनका कोई सरोकार नहीं है और यह प्रेस काउंसिल है के अध्यक्ष न्यायमूर्ति सी.के. प्रसाद का अकेले लिया गया निर्णय है। काउन्सिल की २२ अगस्त की बैठक में इस विषय पर चर्चा हुई थी और इसमें भाग लेने गए पत्रकारों ने कश्मीर में मीडिया पर पूरी तरह पाबंदी लगाये जाने पर आक्रोश भी व्यक्त किया था।

जहां तक सवाल प्रेस की आजादी का है तो वह हमें संविधान के अनुच्छेद १९ (१) (क) में प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के तहत मिला है लेकिन यह अधिकार निर्बाध नहीं है और आवश्यकता पड़ने पर अनुच्छेद १९ (२ ) के तहत इसे नियंत्रित किया जा सकता है। इस संबंध में न्यायालय के कई निर्णय भी हैं।सोशल मीडिया के इस दौर में खबरों और तथ्यों पर विश्वास करना आसान नहीं है। मीडिया पर पूरी तरह पाबंदी लगाने का नतीजा यह है कि सोशल मीडिया या दूसरे स्रोतों से मिल रही जानकारियों का इस समय बोलबाला है। कोई नहीं जानता कि इस तरह निकल रही खबरों की सच्चाई क्या है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि सोशल मीडिया या डिजिटल युग में अभिव्यक्ति के नाम पर संयमित और मर्यादित भाषा का विलोप होने लगा है।
आपातकाल का दौर छोड़ दें तो देश में आजादी के ७१ साल के दौरान शायद ही कभी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को नियंत्रित करने की आवश्यकता पड़ी हो। लेकिन डिजिटल मीडिया और फेक न्यूज की मायावी दुनिया में जिस तरह से परिणामों से बेखबर हर मुद्दे पर की जा रही टीका-टिप्पणी को देखते हुए अक्सर अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर मन में कई शंकाएं उत्पन्न होने लगती हैं। खासकर उन बच्चों के जो अपने परिवार से दूर रहकर पढ़ रहे हैं | वे इधर और उनके माँ बाप उधर सूचना के अभाव में अशुभ सोच रहे हैं और अपने को कोस रहे हैं |

मीडिया के कामकाज को पूरी तरह बाधित करना किसी भी स्थिति में न्यायोचित नहीं है। इस तरह के नियंत्रण से निश्चित ही लोकतंत्र के चौथे स्तंभ और प्रहरी की भूमिका निभाने वाली मीडिया के स्वतंत्र रूप से काम करने के मौलिक अधिकार के हित मंल नहीं है। सरकार को चाहिए कि कुछ नियंत्रणों के साथ जम्मू-कश्मीर में मीडिया को काम करने की छूट दे।कश्मीर में हालात तेजी से सामान्य होने का दावा कर रही सरकार को पत्रकारों को घाटी में जाने देने और हकीकत से रूबरू होने की अनुमति देनी चाहिए। यदि सरकार ऐसा करती है तो इसके लाभ होंगे। सरकार को अगर लगता है कि मीडिया की जमात का कोई सदस्य कुछ गलत कर रहा है, तो कानून है न |

श्री राकेश दुबे (वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार)
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com

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