प्रतिदिन :
हम प्रजातंत्र में रह रहे हैं, मोदी जी !
इन दिनों केंद्र सरकार बहुत सारे विषयों में या तो मौन है या उसके जवाब अपर्याप्त हैं |प्रजातंत्र की अनिवार्य शर्त है कि आलोचना को ध्यान और धैर्य से सुना जाये और यदि आलोचना में कुछ भी सच्चाई है तो स्थिति को सुधारने की ईमानदार कोशिश की जाये। सवाल किसी एक मीडिया या एक उद्योगपति द्वारा की गयी आलोचना का नहीं है, सवाल जनतांत्रिक प्रक्रिया में विश्वास का है। उस आस्था का है जो जनतंत्र के प्रति हमारे भीतर होनी चाहिए। आलोचना करने वाले को भी ध्यान रखना चाहिए कि उसके आरोप तथ्यों पर आधारित हों और जिसकी आलोचना हो रही है, वह भी आरोपों की गंभीरता को समझे, यह जानने की कोशिश करे कि आरोपों में कहीं कोई सच्चाई तो नहीं है। यही ईमानदारी जनतंत्र की सफलता के द्वार सडक से लेकर संसद तक खोलेगी | अभी रवैया कुछ और है |
एक अच्छी सरकार का दायित्व है कि वह समाज में बन रही धारणाओं की उपेक्षा न करे, उन कारणों को तलाशे जो इन धारणाओं को जन्म देते हैं। उससे अगला कदम समाज की धारणाओं के सच को उजागर करने का है और यह काम कभी भी आलोचना करने वाले की नीयत पर शक करके नहीं हो सकता। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का यह कथन कि मोदी सरकार हर चीज को और हर व्यक्ति को शक के प्रिज्म से देखती है, आरोप नहीं, वस्तुत: एक चेतावनी है। जनतंत्र में विरोधी का मतलब दुश्मन नहीं होता और विरोध करने का मतलब कोई दुश्मनी निभाना नहीं होता। सच तो यह है कि जनतंत्र में सत्तारूढ़ पक्ष और विपक्ष दोनों मिलकर देश को चलाते हैं। इन दोनों पहियों का मज़बूत होना ही प्रजातंत्र रथ के ठीक-ठाक चलने की गारंटी होता है। इसमें समाज का वह तबका भी शामिल है जो सरकार की नीतियों पर सवालिया निशान लगाता है और राज कैसा बताता है। किसी भी आलोचना में ईमानदारी हो उसे ईमानदारी से स्वीकार करें| शक के प्रिज़्म से उसे नतो सरकार देखेंऔर न ही प्रतिपक्ष |
पिछले दिनों उध्द्योग्पति राहुल बजाज ने जिस “परसेप्शन” की बात कही है,उसे सरकार को एक चुनौती की तरह लेना चाहिए। इस आरोप का जवाब सिर्फ उन परिस्थितियों में बदलाव है, जो देश में निराशा का वातावरण बना रही हैं। गृहमंत्री ने उस कार्यक्रम में देश के सबसे बड़े मीडिया समूह के मुखिया से कहा था कि वे सरकार की कार्रवाई के समाचारों को अपने प्रकाशनों में उचित स्थान दें। उनका संकेत लिंचिंग के संदर्भ में हुई कार्रवाई की ओर था। पर उसी मीडिया का एक सच यह भी है कि दो बड़े अखबारों ने राहुल बजाज की बातों को पहले पृष्ठ पर जगह देने लायक भी नहीं समझा। मीडिया की यह भूमिका भी शक के घेरे बनाती है। क्या इन अखबारों को किसी प्रकार का भय था या है ?
वर्तमान सरकार पर अपनी एजेंसियों के माध्यम से विरोधियों को डराने के आरोप भी लगते हैं। महाराष्ट्र में हाल के चुनाव में प्रचार के दौरान शरद पवार के खिलाफ एक सरकारी एजेंसी की कार्रवाई को डराने की गतिविधि यदि माना गया तो इसमें ग़लती एजेंसी को आदेश अथवा संकेत देने वाले की ही थी। इस तरह के कार्य ही समाज में धारणाएं बनाते हैं। क्या जल्दबाज़ी थी एक वरिष्ठ नेता को नोटिस देने की? फिर, अब तक उस संदर्भ में कोई कार्रवाई क्यों नहीं हुई? ऐसा ही सवाल साध्वी प्रज्ञा के संदर्भ में भी उठता है। प्रधानमंत्री ने कहा था वे उन्हें मन से कभी क्षमा नहीं करेंगे- तो फिर अब तक उनके खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं हुई?
ऐसी बातें ही इकट्ठा होकर विकराल बन जाती हैं। इन्हीं से धारणाएं बनती हैं। ऐसी ही धारणाएं किसी राहुल बजाज को शिकायत करने का मौका और हिम्मत देती हैं। जैसे न्याय होना ही नहीं, होते हुए दिखना भी चाहिए, अफ़सोस ऐसा नहीं हो रहा है | ये अनदेखी सत्ता और प्रतिपक्ष दोनों के लिए घातक है | हम प्रजातंत्र में रह रहे हैं, और इसका मूल तत्व “पारदर्शिता” है |