प्रतिदिन :
भारत : गिरती गरिमा का देश
बड़ी विचित्र स्थिति है, न लिखते हुए अच्छा लगा रहा है और न इन समाचारों को पढ़ते हुए | विदेशों अर्थात अंतर्राष्ट्रीय फलक पर भारत की गरिमा (Dignity of india) के कम होने के समाचार लगातार मिल रहे हैं। सबसे पहला समाचार तो विश्व में भारत के प्रजातंत्र (democracy) की स्थिति के बारे में है। विश्व के १५६ देशों के एक अंतर्राष्ट्रीय सर्वेक्षण (International survey) में यह बताया गया है कि भारत में बीते वर्ष में आम आदमी के लिए लोकतंत्र का चेहरा बदला गया है। इस सूची में जहां नार्वे, डेनमार्क और स्वीडन शीर्ष पर हैं, वाही भारत दस पायदान नीचे सरक गया है | सरकार संतोष के लिए तर्क दे सकती है कि इस सूची में पाकिस्तान, चीन और किम जोंग का उत्तर कोरिया भारत से कहीं नीचे हैं, सरकार को याद रखना होगा कि वहां तो तानाशाही (Dictatorship) का हमेशा बोलबाला रहा, लेकिन भारत के सत्ताधीश सदा अपने देश को दुनिया का सबसे बड़ा और गरिमापूर्ण गणतंत्र (Dignified republic) कहते रहे हैं। फिर यहां लोकतंत्र का चेहरा धुंधला क्यों होता जा रहा है?
पिछले दिनों देश की शीर्ष अदालत ने भी चेतावनी दी थी। इसके साथ ही भारतीय गणतंत्र के विरूप होते चेहरे का एक बड़ा कारण भारतीय चुनावों में धन का बढ़-चढ़कर प्रयोग और चुनावी अखाड़े में करोड़पति उम्मीदवारों के बोलबाले के साथ अपराधों से दागी उम्मीदवारों पर अभी तक नियंत्रण न कर पाना है। यहां विचारणीय बात यह है कि ‘आरोपित जब तक दण्डित न हों, अपराधी नहीं कहला सकता’ के नियम की आड़ में आज भी केंद्रीय और राज्यों के चुनावों में दागी उम्मीदवारों का बोलबाला है और देश की जनता इन्हीं उम्मीदवारों में से चयन कर उन्हें अपने भाग्य विधाता बनाने के लिए मजबूर होती है। भारतीय गणतंत्र के इस दाग को मिटाने में चुनाव आयोग असमर्थ नजर आया है|
‘ट्रांसपेरेसी अंतर्राष्ट्रीय’ का भ्रष्टाचार सूचकांक तो सचमुच चौंका देता है। इस वर्ष के १८० देशों के सर्वेक्षण में भारत का दर्जा और भी कम हो कर दो पायदान नीचे चला गया है। पिछले वर्ष भारत ७८ वें स्थान पर था, अब८० वें पायदान पर चला गया है। अभी प्रसारित एक स्वदेशी सर्वेक्षण बताता है कि देश की आधी आबादी को अगर कोई छोटा या बड़ा सरकारी काम करवाना होता है तो उसे रिश्वत देनी पड़ती है, शेष आधी आबादी को अपना काम करवाने के लिए संपर्क और रसूख का कोई चोर दरवाजा तलाश करना पड़ता है।
कभी पंजाब सरकार ने अपनी जनता को सेवा का अधिकार होने और सरकारी काम करने की समयबद्ध सीमा तय करने की विश्व की खुशहाली का सूचकांक (Index of world happiness) भी पोल खोल रहा है कि भारत का आम आदमी खुशहाल नहीं है। ‘हर पेट को रोटी और हर चेहरे पर मुस्कान’ आज भी देश की एक बड़ी आबादी के लिए कठिन है। देश में बेकारी दर ७.१ प्रतिशत हो गयी, जो पिछले कई दशकों की तुलना में सर्वोच्च है। इस समय युवा भारत में हर वर्ष एक करोड़ बीस लाख लोग कार्य योग्य होकर नौकरी मांगते हैं, और बदले में निराशा पाते हैं।
सरकार अंधाधुंध विकास गति प्राप्त करने के लिए देशी-विदेशी व्यापार घरानों में.निवेश के लिए दौड़ लगी रही कि वे अपने निवेश के साथ स्वचालित मशीनों की धरती से औद्योगिक क्रांति की फसल उगा दें। पूंजी गहन उद्योगों और उनकी त्वरित उत्पादन दर ने देश के लघु और कुटीर उद्योगों का बंटाधार कर दिया है। छोटे आदमी के श्रम गहन उद्योगों का पतन हो गया है। देश के प्रमुख सेक्टरों में पांच साल में ३.६४ लाख करोड़ नये बेकार हो गये। यह उस ग्यारह करोड़ से अतिरिक्त थे जो पहले से देश में बेकार बैठे थे। क्या देश में युवकों के मरते हुए सपनों की जिंदगी लौटाने के लिए आवश्यक नहीं कि इस कृषि प्रधान देश में उन्हें अपनी जड़ों, अपने ग्रामीण समाज में लौटने के लिए प्रेरित किया जाये ?