- अभिमत

चुनाव प्रचार और बदजुबानी

प्रतिदिन :

चुनाव प्रचार और बदजुबानी
दिल्ली विधानसभा चुनाव (Delhi Assembly Elections) के नतीजे आ गए, केजरीवाल फिर नेता चुन लिए गये | हर बार की तरह इस बार भी चुनाव प्रचार अनुत्तरित सवाल छोड़ गया है । सवाल चुनाव प्रचार के दौरान नेताओं के भाषणों में प्रयुक्त होने वाली शब्दावली और विरोधियों के प्रति असभ्य भाषा के इस्तेमाल से संबंधित हैं। भाषणों की शब्दावली ने एक बार फिर लोकतंत्र को कलंकित करने का काम किया है।चुनाव प्रक्रिया की पवित्रता और पारदर्शिता बनाये रखने के लिये वैसे तो चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के साथ ही आदर्श आचार संहिता लागू हो जाती है। प्रमुख नेताओं और प्रचारकों की चुनावी सभाओं की वीडियो रिकार्डिंग भी करायी जाती है और किसी नेता या प्रत्याशी के बारे में शिकायत मिलने पर वीडियो रिकार्डिंग का अध्ययन किया जाता है। इतना कुछ होने के बावजूद चुनावी सभाओं में बेहद आपत्तिजनक और आहत करने वाली भाषा का इस्तेमाल बद्स्तूर जारी रहता है।

यूँ तो जन प्रतिनिधित्व कानून और भारतीय दंड संहिता में नेताओं की बदजुबानी और सांप्रदायिक कटुता फैलाने वाले बयान देने वाले से निपटने के लिए ठोस प्रावधान हैं, निर्वाचन आयोग के पास भी कुछ अधिकार हैं लेकिन इसके बाद भी नेताओं के भाषणों का गिरता स्तर एक बार फिर यह सोचने पर मजबूर कर रहा है कि आखिर ‘गोली मारो…’, ‘देश का युवा डंडे मारेगा’ या ‘फिर बिरयानी, शाहीनबाग और आतंकवादी’ अथवा ‘हिन्दू-मुस्लिम…’ जैसे वैमनस्य और कटुता पैदा करने वाली नेताओं की शब्दावली पर कैसे अंकुश लगाया जाये?सम्पूर्ण समाज के सामने प्रश्नचिंह है |

यहाँ प्रश्न यह है कि क्या किसी भी सभ्य समाज में जन-प्रतिनिधियों और जन प्रतिनिधि बनने की लालसा रखने वाले व्यक्तियों को अपने बयानों और भाषणों में संयमित और सभ्य भाषा के इस्तेमाल के लिये कानून की चाबुक की जरूरत है? इस समस्या से निपटने के लिये निर्वाचन आयोग के पास बहुत अधिकार नहीं हैं। आयोग आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन के बारे में पहली नजर में संतुष्ट न होने की स्थिति में नेताओं को नोटिस देकर, उन्हें चेतावनी देकर या फिर उनके इस तरह के आचरण की निन्दा करता है। नेताओं के भाषण अत्यधिक आपत्तिजनक होने की स्थिति में ऐसा करने वाले नेता के खिलाफ जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा १२५ के तहत प्राथमिकी दर्ज करने का आदेश भी आयोग दे सकता है।
जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा १२५ के अनुसार यदि कोई प्रत्याशी चुनाव के दौरान नागरिकों के बीच धर्म, मूलवंश, जाति, वर्ण, समुदाय या भाषा के आधार पर वैमनस्य या कटुता फैलाने का प्रयास करेगा तो इस अपराध के लिये उसे तीन साल तक की कैद या जुर्माना या दोनों सजा हो सकती है। दोषी व्यक्ति जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 के तहत चुनाव लड़ने के अयोग्य होगा।इसी तरह, भारतीय दंड संहिता की धारा १५३ -ए में प्रावधान है कि जो कोई भी धर्म, मूलवंश, जन्म स्थान, निवास स्थान और भाषा आदि के आधार पर विभिन्न समुदायों और समूहों के बीच सौहार्द बिगाड़ने का अपराध करेगा तो उसे इसके लिये पांच साल तक की कैद और जुर्माने की सजा हो सकती है। इन प्रावधानों के बावजूद नेताओं की बदजुबानी पर कोई कारगर अंकुश नहीं लग पाया।
निर्वाचन आयोग द्वारा इस तरह के मामले में प्राथमिकी दर्ज करने का आदेश दिये जाने और प्राथमिकी दर्ज होने के बाद पुलिस ही इस तरह के मामलों की तहकीकात करके अदालत में आरोप पत्र दाखिल करने में काफी वक्त लगा देती है । इसके बाद निचली अदालत में ही ऐसे मामले में अंतिम निर्णय होने में काफी वक्त लग जाता है। ऐसे मुकदमों के फैसले में लगने वाले समय के संदर्भ में भारतीय जनता पार्टी के सांसद और केन्द्रीय मंत्री मेनका गांधी के पुत्र वरुण गांधी के मामले का जिक्र करना अनुचित नहीं होगा। उनके खिलाफ १५ वीं लोकसभा चुनाव के दौरान उत्तेजक भाषण देने के मामले में पीलीभीत के बाड़खेड़ा थाने में १३ मार्च,२००९ को भारतीय दंड संहिता की धारा १५३ ए, २९५ ए, ५०५ (२)और जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा १२५ के तहत प्राथमिकी दर्ज की गयी थी। अदालत ने पांच मार्च, २०१३ को अपने फैसले में वरुण गांधी को सभी आरोपों से बरी कर दिया था। मध्यप्रदेश में शिकायतें हुई पर अदालत तक नहीं पहुंची |
समय आ गया है कि चुनाव प्रचार के दौरान असभ्य, असंसदीय और कटुता पैदा करने वाले भाषणों तथा बयानों से संबंधित मामलों में सख्त कार्रवाई के लिये निर्वाचन आयोग को अधिक अधिकार देने की आवश्यकता है। इन अधिकारों में ऐसे नेताओं की निन्दा करने और चुनाव प्रचार में उनके शामिल होने पर प्रतिबंध की अवधि बढ़ाने के साथ ही उन पर तगड़ा जुर्माना लगाने का भी अधिकार शामिल किया जा सकता है।

श्री राकेश दुबे (वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार)
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com

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