प्रतिदिन :
७२ वां गणतंत्र और ये मौजूं सवाल
देश ७२ वें गणतंत्र दिवस की तैयारी में लगा हुआ है | कई सारे सवाल मेरे ई मेल पर अनुत्तरित है, सब देश से जुड़े हैं | पांच सौ से अधिक इन प्रश्नों का समग्र रूप से उत्तर देना संभव नहीं है, पर सबकी भावना एक प्रश्न में एकत्र करने पर जो प्रश्न उभरता है, वो है – क्या संविधान की सुरक्षा की शपथ लेना सिर्फ औपचारिकता है? पहले एक फ़िल्मी कलाकार की पत्नी को हुआ असुरक्षा बोध और अब सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद ट्रेक्टर मार्च के मंसूबे जो दृश्य पैदा कर रहे हैं | वे किसी भी सवाल के जवाब के पूर्व देश के गौरवशाली इतिहास के पन्ने पलटने को मजबूर करता है
याद आता है मुसलमानों की एक पस्त भीड़ के सामने हुआ मौलाना आजाद का भाषण | उन्होंने कहा था कि “किसी को भी तब तक अपनी हिफाजत की चिंता नहीं करनी चाहिए, जब तक २६ जनवरी, १९५० को लागू हुआ भारतीय संविधान सुरक्षित है।“ अब तो देश के दूसरे हाशिए के समुदायों को भी समझ में आ गया है कि अगर संविधान नहीं बचा, तो उनके एक सभ्य मनुष्य के रूप में जीने की संभावना भी नहीं बचेगी।
भारतीय संविधान के बनने और उसके जनता द्वारा स्वीकृत किए जाने की प्रक्रिया को बार-बार याद किए जाने की जरूरत है। १९४७ से १९४९ के बीच संविधान सभा में जो कुछ घट रहा था, वह किसी शून्य की उपज नहीं था, गहन मंथन की उपज था। पहले से मौजूद बहुत कुछ समाहित होने से यह असाधारण जरूर था, पर अप्रत्याशित तो बिल्कुल नहीं कि रक्तरंजित बंटवारे के बीच काफी लोगों ने मान लिया था कि हिंदू और मुसलमान, दो अलग राष्ट्र हैं, इसलिए साथ नहीं रह सकते। तब संविधान सभा ने देश को ऐसा संविधान दिया, जो एक उदार और धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की परिकल्पना करता है। यह अप्रत्याशित इसलिए नहीं कि देश की आजादी की लड़ाई जिन मूल्यों से परिचालित हो रही थी, वे आधुनिकता और धर्मनिरपेक्षता की ही उपज थे। अस्पृश्यता या स्त्री-पुरुष समानता जैसे प्रश्नों पर संविधान सभा की दृष्टि एक आधुनिक दृष्टि थी और इसके चलते भारतीय समाज में दूरगामी परिवर्तन होने जा रहे थे। इसी तरह, एक करोड़ से अधिक लोगों के विस्थापन और विकट मार-काट के बीच भी स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अर्जित एकता की भावना ने ही इस धर्मनिरपेक्ष संविधान को संभव बनाया।
भारत का संविधान तो २६ नवंबर, १९४९ को बन तो गया लेकिन, इसे बनाने वाली सभा ही जनता से सीधे नहीं चुनी गई थी और इसकी वैधता के लिए जरूरी था कि इस पर जन-स्वीकृति की मोहर लगवाई जाए। इस जिम्मेदारी को निभाया पंडित जवाहरलाल नेहरू ने, जो प्रधानमंत्री होने के साथ-साथ १९५२ के पहले आम चुनाव के ठीक पहले एक बार फिर कांग्रेस के अध्यक्ष चुन लिए गए थे। चुनाव के पहले उन्होंने देश भर में घूम-घूमकर सैकड़ों सभाएं कीं।
जालंधर से शुरू हुई उस शृंखला में उनका एक ही एजेंडा था, लोगों को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के लिए तैयार करना। हर सभा में वह इस सवाल से अपना कार्यक्रम शुरू करते, देश बंटवारे के साथ आजाद हुआ है, हमारे बगल में एक धर्माधारित इस्लामी हुकूमत कायम हो गई है, अब हमें क्या करना चाहिए? क्या हमें भी एक हिंदू राज बना लेना चाहिए? इन सवालों के जवाब वह खुद अगले डेढ़ घंटे तक आसान हिन्दुस्तानी में देते। वह लगभग अशिक्षित श्रोताओं को अपने तर्कों से कायल करके ही भाषण समाप्त करते कि कैसे देश की एकता, अखंडता और तरक्की के लिए एक धर्मनिरपेक्ष भारत जरूरी है।
सब जानते हैं कि धर्म के नाम पर बना पाकिस्तान २५ वर्षों में ही टूट गया और तमाम झंझावातों के बावजूद भारत एक मजबूत राह पर आगे बढ़ रहा है। इतिहास बताता है जालंधर में नेहरु जी की सभा के अधिसंख्य श्रोता वे हिंदू और सिख थे, जो कुछ ही दिनों पहले बने पाकिस्तान से अपने परिजनों और जीवन भर की जमा-पूंजी गंवाकर भारत पहुंचे थे। धार्मिक कट्टरता बुरी चीज है, यह समझाने में वे सफल हुए पर उनके बाद की कांग्रेस ने उसे चुनाव जीतने का उपकरण बना लिया | परिणाम आज सबके सामने है | हर क्रिया की प्रतिक्रिया का सामान्य नियम भारत की राजनीति में भी लागू हुआ |
कल्पना कीजिये, ऐसा कभी भारत में हो तो क्या हो? जैसे एक अच्छे संविधान के बावजूद अमेरिका में ट्रंप के उकसावे पर भीड़ संसद पर चढ़ दौड़ी, भारत में इस स्थिति में सारी सदिच्छाओं का क्या होगा? वहां कम से कम संस्थाओं में इतना दम तो है कि प्रारंभिक झटके के बाद उन्होंने अपने राष्ट्रपति का हुक्म मानने से इनकार कर दिया। क्या हमारी संस्थाएं इतनी मजबूत हैं? लोकतंत्र में जरूरी है कि विवाद या तो बातचीत से हल हों या फिर संविधान के दायरे में न्यायिक समीक्षा द्वारा, पर हाल का किसान आंदोलन इस मामले में निराशाजनक है कि सरकार ने मामले को सुप्रीम कोर्ट भेजने की बात की। कुछ तो इस संविधान को नकारने तक कीबात खुले आम करते हैं |
इन सारे सवालों के जवाव संविधान की रोशनी में नागरिको और सरकार दोनों को खुद आगे बढ़कर खोजना चाहिए। यह तय मानिये हमारे तंत्र पर ऐसे खतरे तब तक मंडराते रहेंगे, जब तक हम संविधान में शामिल धर्मनिरपेक्षता, सहिष्णुता या कानून के सामने सबकी बराबरी जैसे मूल्यों को अपनी जीवन पद्धति का अंग नहीं बनाएंगे।
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