- अभिमत

अब तो गाँधी को बख्शो ! भाई

प्रतिदिन:

अब तो गाँधी को बख्शो ! भाई
चुनाव हो गये नतीजे आ गये अब तो मोहनदास करमचंद गाँधी को बख्शिए | हर बार चर्चा में गाँधी और उनकी हत्या करने वाले  गोडसे की चर्चा उठाकर हम समाज में क्या संदेश देना चाहते हैं ? ये संदेश साफ बताते है, गाँधी  राजनेताओं के लिए इस्तेमाल की वस्तु है, जीने के लिए विचार धारा नहीं | महात्मा गाँधी ने अपनी अयोध्या यात्रा के दौरान जो संदेश दिया था उसे समूचा विश्व याद करता है, दुर्भाग्य से गाँधी के ही देश उस पर अमल नहीं हो रहा | गाँधी जी ने तत्समय अयोध्या में कहा था “पाप से घृणा करो, पापी से नहीं|” दुर्भाग्य अपने को गाँधी के चेले कहने वाले हर दिन किसी न किसी बहाने ३० जनवरी १९४८ के दुखद प्रसंग को याद करते हैं, और इस याद के पीछे समाज को बांटती दुर्भावना होती है | इनमें अधिकांश वे लोग होते हैं, जो वर्तमान में गाँधी-नेहरु परिवार के पीछे कतार में  खड़े  हैं | इस गाँधी-नेहरु परिवार ने भी स्व. राजीव गाँधी के हत्यारों को माफ़ कर दिया है |
भोपाल में करारी हार के बाद दिग्विजय सिंह फरमाते हैं ‘‘देश में महात्मा गांधी की हत्या कराने वाली विचारधारा जीत गई। देश के शांतिदूत महात्मा गांधी की विचारधारा हार गई। यह मेरे लिए चिंता की बात है।’’  उन सहित, महात्मा गाँधी की विचार धारा की अलमबरदार कांग्रेस में  या अन्य किसी दल  अब कितने शेष हैं ? गाँधी के विचार और उनकी कार्य शैली पर चलने वाले ओझल हो चुके हैं |  यह  एक बड़ा सवाल है, जो  आत्मावलोकन को मजबूर करता है | कांग्रेस की ओर से व्यक्त किया दिग्विजय सिंह का यह विचार सराहनीय है ‘‘हम लोगों ने हिंसा का रास्ता नहीं अपनाया । कांग्रेस के पास एक ही रास्ता है। सत्य और अहिंसा। वह इसी रास्ते पर आगे बढ़ेगी।’’ देश के लिए इतना ही बहुत है | वर्तमान में राजनीति हिंसा की दिशा में ही जा रही है, पश्चिम बंगाल उदहारण है |
दिग्विजय सिंह को हराने वाली प्रज्ञा ठाकुर को भी इस सबसे सीखना चाहिए | प्रजातंत्र में विचारों की प्रस्तुति और कार्यकलाप  पर सब की नजर होती है | अब भले ही कितना छिपें, बोल-वचन आपकी गहराई बता देते हैं | भोपाल का चुनाव उनके शब्दों में धर्म युद्ध था | प्रज्ञा की यह उपमा गले नहीं उतरती | धर्म बहुत बड़ी चीज है, जिसका पहला पायदान विचार शुद्धि है | मन में बैर रखकर कोई बैरागी नहीं हो सकता | वैराग्य की पहली शर्त मन की निर्मलता है, कोई माने या न माने |
देश में इस चुनाव परिणाम का एक अंश राष्ट्रवाद कहा जा रहा है,  लेकिन  मध्यप्रदेश राज्य में इसके अंदरूनी और पार्टीगत कारण भी हैं। मप्र में नतीजे इसलिए भी हैरान करने वाले हैं कि यहां चंद महीने पहले ही कांग्रेस की सरकार बनी है और पिछले कुछ दशकों से २९  में से २८  सीटें किसी एक दल को मिली हों, ऐसा भी कोई उदाहरण नहीं है। कांग्रेस के नेता पूरे चुनाव में मोदी लहर को नकारते रहे और आज तक यह स्वीकार नहीं कर पा रहे है कि वे जनता से कितने दूर हैं |

पांच महीने पहले हुए मप्र विधानसभा चुनाव में भाजपा को ४१प्रतिशत वोट मिले थे और १७  लोकसभा क्षेत्रों में उसने बढ़त हासिल की थी, लेकिन २०१९ के लोकसभा चुनाव में भाजपा को ५८ प्रतिशत वोट मिले हैं। पांच महीने के भीतर भाजपा ने लगभग १७  प्रतिशत ज्यादा वोट हासिल किए हैं। इसके उलट कांग्रेस का वोट शेयर लगभग ६  प्रतिशत कम हो गया है। उसे विधानसभा चुनाव में ४०.९ प्रतिशत वोट मिले थे, जो लोकसभा चुनाव में घटकर ३४.५६ प्रतिशत रह गए हैं। इस  सारे परिदृश्य में किसी विचारधारा  को कोसने की जगह आत्मावलोकन ज्यादा जरूरी है | फिर से बापू की बात याद आती है “पाप से घृणा करो, पापी से नहीं |”

श्री राकेश दुबे (वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार)
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com

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